________________ तृतीयः सर्गः दूसरे पक्षमें-सात विभक्तियोंका विचार किया जायेगा तो उस प्रथमा विभक्तिको पहले कहना चाहिए, जो (प्रथमा विभक्ति) सु औ अस् इन प्रत्ययोंके विस्तारोंसे बहुतसे सुबन्तपदोंको सिद्ध करनेके लिए समर्थ होगी // 23 // टिप्पणी-साधुविभक्तिचिन्ता=साधूनां विभक्तिः (विभागः) (ष० त०), तस्याश्चिन्ता (10 त० ) / विभक्तिपक्षमें-विभक्तीनां चिन्ता (प० त० ), साधु ( यथा तथा ) विभक्तिचिन्ता ( सुप्सुपा० ) / क्रियेत=कृ+लिङ् (कर्ममें)+ त / प्रथमाऽभिधेया=प्रथमम् (यथा तथा) अभिधेया (सुप्सुपा०)। विभक्तिपक्षमें-प्रथमा-प्रातिपदिकाऽर्थलिङ्गपरिमाणवचनमात्रे प्रथमा" इससे होनेवाली प्रथमा विभक्ति / स्वौजसांस्वस्य ओजांसि ( तेजांसि ), तेषाम् (ष० त० ) / विभक्तिपक्षमें-सुश्च औश्च जश्च स्वीजसः, तेषाम ( द्वन्द्वः) / अनामपदम् - नमनं नामः, 'नम्' धातुसे भावमें घञ् / अविद्यमानः नामः येषां ते अनामाः ( नञ्बहु० ), न झुकनेवाले अर्थात् शत्रु / अनामानां पदं (90 त० ) तत् / विभक्तिपक्षमें-नामपदं नाम च तत्पदं, तत् (क० धा० ), निरुक्तके मतके अनुसार नाम, आख्यात, उपसर्ग और निपात इन चार प्रकारके पदों में "सत्त्वप्रधानानि नामानि" अर्थात जिनमें सत्त्व (द्रव्य) प्रधान होते हैं उन्हें "नाम" कहते हैं, अर्थात् सुबन्त पद / छः कारकों में "व्यापाराश्रयः कर्ता" व्यापारका आश्रय कर्ता होता है। अतः वही प्रधान होता है, उसमें प्रथमा विभक्तिको प्रयोग होता है, इसलिए अन्य विभक्तियों में उसीको प्रधानता और प्राथम्य होता है यह तात्पर्य है। इस पद्य में प्रस्तुत अर्थ नल व्यक्तिका बोधन कर अभिधावृत्तिका विराम होनेके अनन्तर अन्वयकी अनुपपत्ति न होनेसे लक्षणाकी अप्रसक्तिसे तात्पर्यवृत्तिके पदार्थाऽन्वयका बोधन कर निवृत्ति होनेपर अप्रस्तुत प्रथमा विभक्तिकी प्रतीति उपमाध्वनिसे हो जाती है // 23 // . राजा स यज्वा विबुधवजत्रा कृत्वाऽध्वराऽऽज्योपमयेव राज्यम् / भुङ्क्ते श्रितश्रोत्रियसात्कृतश्री: पूर्व स्वहो ! शेषमशेषमन्त्यम् // 24 // अन्वयः-यज्वा श्रितश्रोत्रियसात्कृतश्री: स राजा अध्वराज्योपमया इव राज्यं विबुधवजत्रा कृत्वा पूर्व शेषम्, अन्त्यं तु अशेषं भुङ्क्ते अहो // 24 / / __व्याख्या-यज्वा=विधिना इष्टवान्, श्रितश्रोत्रियसात्कृतश्री:-आश्रितच्छान्दसाधीनकृतसम्पत्तिः, सः पूर्वोक्तः, राजा भूपतिः, नल इत्यर्थः / अध्वराज्योपमया इव=यज्ञघृतसादृश्येन इव, राज्यं राष्ट्र, विबुधवजत्रा