________________ 294 नैषधीयचरितं महाकाव्यम् पराङ्मुखी = पराक् मुखं यस्याः सा ( बहु० ) ।न्यवीवत:=नि+वृत + णिच् + लुङ्+ सिप् / इस पद्यमें सहोक्ति अलङ्कार है // 40 // दिवौकसं कामयते न मानवो, नवीनमश्रावि तवाऽननादिदम् / कथं न वा दुर्गहदोष एष ते हितेन सम्यग्गुरुणाऽपि शाम्यते ? // 41 // अन्वयः-(हे दमयन्ति ! ) मानवी दिवौकसं न कामयते, इदं नवीनं तव आननात्' अश्रावि / एष ते दुर्ग्रहदोषो हितेन गुरुणा अपि कथं वा न शाम्यते ? // 4 // व्याख्या-मानवी = मानुषी, दिवौकसं = देवम्, इन्द्रादिकमिति भावः / न कामयते = न इच्छति, इदम् = एतत्, नवीनं = नूतनं, वच इति शेषः / तव = भवत्याः, आननात् = मुखात्, अश्रावि = श्रुतम् / एषः = अयं, ते= तव, दुर्ग्रहदोषः = दुराग्रहदूषणं, दुष्टो ग्रहदोषो वा, हितेन = आप्तेन, अनुकूलन च, गुरुणा अपि = पित्रादिना, वृहस्पतिना अपि / कथं वा = केन प्रकारेण वा, न शाम्यते = नो निवर्त्यते // 41 // ___ अनुवादः-मानुषी देवताको नहीं चाहती है यह अपूर्व वचन तुम्हारे मुखसे सुना गया है। जैम दुष्टग्रहोंका दोष बृहस्पतिसे हटाया जाता है, परन्तु तुम्हारा यह दुष्ट आग्रहदोष तो पिता आदि गुरुजनसे भी कैसे नहीं हटाया जा रहा है ? // 41 // टिप्पणी- कामयते = कम + णिड + लट् +त। अथावि = श्रु+लुङ् ( कर्ममें )+त / दुर्ग्रहदोपः = दुष्टः ग्रहः दुर्ग्रहः ( गति. ) / स चाऽसौ दोपः (क० धा० ) / दमयन्ती के पक्षमें ग्रहका अर्थ आग्रह, दूसरे पक्षमें मूर्य आदि ग्रह / “अथाऽर्काऽऽदिनवग्रहाः" इति वैजयन्ती / “गुमर्गी:पतिपित्राद्योः" इत्यमरः / दमयन्ती के पक्ष में "गुरु" पदका अर्थ पिता आदि मान्य जन, दूसरे पक्षमें बृहः स्पति / शाम्यते = शम् +णिच् + लट् ( कर्ममें )+त / "किं कुर्वन्ति ग्रहाः सर्वे केन्द्रस्थाने वृहस्पती।" इस ज्योतिपशास्त्रके वचनके अनुसार केन्द्रस्थानमें गुरु ( बृहस्पति ) के रहनेपर अन्य दुष्ट ग्रहोंका दोष दूर होता है, पर तुम्हारा दुराग्रह ( देवताओंको वरण न करनेका आग्रह ) दीप तुम्हारे पिता आदिसे भी क्यों नहीं हटाया जाता है यह तात्पर्य है। इस पद्यमें अभिधाके प्रकृत अर्थका नियन्त्रण होनेसे जो अप्रकृत अर्थकी प्रतीति होती है वह ध्वनि है, श्लेप अलङ्कार नहीं // 4 //