Book Title: Mohanlalji Arddhshatabdi Smarak Granth
Author(s): Mrugendramuni
Publisher: Mohanlalji Arddhashtabdi Smarak Granth Prakashan Samiti
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મુનિશ્રી માહનલાલજી
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सुप्त समाज के कर्ण-विवर में नव-जागरण का मन्त्र फूंकने, अज्ञान तिमिराच्छन्न दृष्टि को प्रकाश - दान कर सम्यग्दृष्टि बनाने, लोकोपकारी अनेकानेक संस्थाओं का निर्माण एवं पुनर्जीवन करने, जिन- चैत्यों के जीर्णोद्धार, निर्माण आदि नाना सत्कार्यों में जो अपूर्व योग-दान किया है, वह स्वर्णाक्षरों में अंकित किए जाने योग्य हैं । यद्यपि उन्हें स्वर्गमन किए ५६ वर्ष व्यतीत हो चुके हैं, परन्तु फिर भी उन का यशःकाय विद्यमान है, उन का अमर सन्देश हमारे मार्ग-दर्शन के लिए सदैव पथ-प्रदर्शक का कार्य करता रहेगा । उच्च कोटि के विद्वान् एवं लब्ध प्रतिष्ठ महात्मा होते हुए भी उन का जीवन अत्यंत सरल एवं निःस्पृह था, जिस के कारण उनके संपर्क में आए हुए आबाल-वृद्ध पर उन के आदर्श गुणों की अमिट छाप पड़े बिना नहीं रहती थी । भव-व्याधियों से परितप्त जनों को उन का सत्संग ऋतुराज वसंत के समान सुखद प्रतीत होता था। कहा भी है कि:
शान्ता महान्तो निवसन्ति सन्तो वसन्तल्लोकहितं चरतः । तीर्णाः स्वयं भीमभवार्णवं जनानहेतुनान्यानपि तारयतः ॥
अर्थात् इस भयंकर संसार सागर से तरे हुए शान्त और महान् संतजन निःस्वार्थ बुद्धि से दूसरे लोगों को भी तारतें हुए वसंत के समान लोक-हित करते हुए निवास करते हैं ।
उनके स्वर्गमन के पश्चात् उनकी पवित्र स्मृति को स्थिर रखने के लिए नाना स्मारक बने, किन्तु वास्तविक स्मारक तो तभी बनेगा, जब हम उन के अधूरे छोड़े हुए कार्य को पूर्ण करने के लिए सन्नद्ध हो जायंगे, और उन के उत्तमोत्तम सदुपदेशों तथा उनकी आदर्श जीवनी से प्रेरणा ग्रहण कर स्वयं को जैनधर्म का सच्चा अनुयायी तथा राष्ट्र का सच्चा नागरिक सिद्ध करेंगे । गुरुदेव की दिवंगत आत्मा से प्रार्थना है कि वह हमें ऐसा करने की शक्ति प्रदान करें ।
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