Book Title: Mohanlalji Arddhshatabdi Smarak Granth
Author(s): Mrugendramuni
Publisher: Mohanlalji Arddhashtabdi Smarak Granth Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 335
________________ શ્રી મોહનલાલજી અર્ધશતાબ્દી ગ્રંથ: 'पुस्तकें ५ प्रकार के साइझ की लिखी जाती थी उनका भी जैनागमों में उल्लेख है। प्राचीन काल में मनुष्यकी स्मृति बहुत तेज थी इसलिए मौखिक परम्परा से ही शिक्षादि व्यवहार होते रहैं है । लिखने का काम बहुत थोड़ा ही पडता होगा और जो कुछ लिखा जाता, वह भी थोड़े समय टिकनेवाली वस्तुओं पर । इसी से प्राचीन लिखित ग्रंथ आदि अब प्राप्त नहीं है। मोहन जो दडे आदि स्थानों में प्राप्त पुरातत्त्व पर जो लिपि खुदी हई है उस को अभी ठीक से पढकर समझी नहीं जा सकी । ब्राह्मी लिपि के उपलब्ध प्राचीन शिलालेखों में शायद सब से पुराना वीर भगवान् के ८४ वर्ष के उल्लेखवाला अजमेर म्यु. ज्यिमवाला लेख है । उस के बाद अशोक के अनेक शिलालेख और खारवेल आदि के लेख प्राप्त है । पर कोई प्रन्थ उस समयका लिखा हुआ अभी भारत में प्राप्त नहीं हुआ फिरभी 'रायपसेणी' सूत्र में उल्लिखित देवविमान की पुस्तक का जो विवरण प्राप्त है, वह बहुत कुछ ताडपत्रीय प्रतिया की लेखन पद्धति से मिलता झुलता है । यद्यपि ताडपत्रीय प्रतियाँ उतने प्राचीन समय की अब हमें प्राप्त नहीं है । जैनागम फुटकर रूप में कुछ पहले लिखे गये हों तो दूसरी बात है पर सामूहिक रूप में उन के लिपिबद्ध होने का समय वीरात् ९८० है । यद्यपि उस समय की भी लिखी हुई कोई प्रति आज उपलब्ध नहीं हैं । मालूम होता है कि उस समय तक पुस्तकों को अधिक से अधिक समय तक टिकाये रखने की कला का उतना विकास नहीं हुआ था । फलतः जो प्रतिया लिखी गई, वे कुछ शताब्दियों में ही नष्ट हो गई । उस अनुभवसे लाभ उठाकर ताडपत्र में कहां के सब से अच्छे और लिखने के उपयुक्त और टिकाउ है और किस तरह उन की घुटाइ करके लिखने से कैसे सुन्दर लेखन हो सकता है और वे अधिक समय तक टिक सकते हैं । इसी तरह स्याही भी किस तरह की बनाने से चमकीली और टिकाऊ बन सकती है इत्यादि बातों पर विचार किया गया होगा । इसके फलस्वरूप इन प्राचीन प्रतियों की अपेक्षा पीछेवाली प्रतियां अधिक स्थायी रह सकी । अबसे १७ वर्ष पूर्व जब हम जेसलमेर के भण्डारों का अवलोकन करने गये थे तो उस समय बहुतसी जर्जरित और टुटी हुई प्रतिया के ऐसे बहुतसे टुकडे हमने देखे थे जिनकी लिपि ९ वीं से १० वी शताब्दी की थी। इससे पहले तो न मालूम ऐसी प्राचीन प्रतियों के कितने टुकडे इधर उधर व नष्ट किये जा चूके होंगे । दूसरी बार जाने पर हमारे पहले के देखे हुए वे छोटे छोटे टुकड़े देखने को नहीं मिले और कई प्रतिया आदि भी पहली और दूसरी बार जाने पर देखी हुई अब अन्यत्र चली गई हैं । खैर ! अब तो जेसलमेर भण्डार में 'विशेषावश्यक भाष्य' की ताडपत्रीय प्रति ही सबसे पुरानी है जिस का समय मुनिराज पुण्यविजयजी ने १० वीं शताब्दी के करीब माना है । १२ वीं शताब्दी से तो १५ वी और १६ वीं के प्रारम्भ तक की करीब १००० ताडपत्रीय प्रतिया जैसलमेर, पाटण, खम्भात, बड़ौदा पूना आदि स्थानों में प्राप्त है । अन्य भण्डारों में कहीं कहीं एक-दो प्रतिया ही भीलती है । जैसलमेर के बड़े भंडार के अतिरिक्त तपागच्छ भण्डार और खरतरगच्छ के बडे उपासरे के पंचायती भण्डार तथा आचार्य शाखा के भण्डार की प्रतिया हमने २. दे. अवन्ति का में प्रकाशित मेरा लेख पुस्तक शब्द को प्राचीनता का प्रकार । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366