Book Title: Marankandika
Author(s): Amitgati Acharya, Jinmati Mata
Publisher: Nandlal Mangilal Jain Nagaland

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Page 16
________________ [ १७ ] (१०) भावना संक्लिष्ट भावना का त्याग और शुद्ध भावना का ग्रहण । (११) सम्मलेन ताकाण और तमासों सः कृलोकरा ! (१२) दिशा-समाधि के इच्छुक प्राचार्य अपने पद पर अन्य मुनि को प्रतिष्ठित करते हैं उस विधि का कथन इस में है। (१३) क्षमणा-समाधि के इच्छुक प्राचार्य अपने संघ से क्षमा याचना करते हैं। (१४) अनुशिष्टि-समाधि के वांछक आचार्य परमेष्ठी अपना पद अन्य शिष्य को देकर उसको तथा समस्त संघ को पृथक्-पृथक् उनके कर्तव्य का श्रेष्ठ उपदेश देते हैं, उसका कथन । (१५) परगणचर्या-समाधि के हेतु आचार्य अन्य संघ में जाने के लिए गमन करते हैं। (१६) मार्गणा-समाधिमरण कराने में परम सहायक ऐसे आचार्य का अन्वेषण करना । (१७) सुस्थित-अपने तथा पर के उपकार करने में समर्थ प्राचार्य को सुस्थित कहते हैं ऐसे प्राचार्य के निकट जाना। (१८) उपसर्पण-समाधिमरण कराने में ममर्थ ऐसे आचार्य के चरणों में आत्म समर्पण । (१९) निरूपण-उक्त समर्थ आचार्य द्वारा पागत क्षपक मुनि का निरीक्षक परीक्षण करना । (२०) प्रतिलेख-समाधिमरण को सिद्धि कसो होगी इत्यादि विषयों का शोधन करना निरीक्षण करना। पृच्छा--समाधि के लिए अपने संघ में साधु के प्रा जाने पर संघनायक संघ से पूछते हैं कि इनको ग्रहण करना है या नहीं ? अर्थात् यह साधु समाधि के योग्य है या नहीं आप इस कार्य में समर्थक हैं या नहीं इत्यादि आचार्य द्वारा पूछा जाना। (२२) एकसंग्रह–एक प्राचार्य एक हो क्षपक मुनि को समाधि हेतु संस्करारूढ़ करते हैं, एक साय अनेकों को नहीं। (२३) आलोचना-जीवन पर्यन्त साधु अवस्था में जो दोष लगे हैं उनको आचार्य के लिए निवेदन कर देना। (२४) गुणदोष - मालोचना के गुण दोषों का कथन । (२५) शय्या-जहां भक्त प्रत्याख्यान मरण ग्रहण करता है वह स्थान बसतिका कंसी हो । (२६) संस्तर---जिस पर क्षपक लेटता है वह भूमि तृण आदि कैसे हों ? (२७) निर्यापक-क्षपक की सेवा करने वाले मुनिगण कैसे हों ? (२८) प्रकाशन -क्षपक को यावज्जीव आहार का त्याग कराने के लिए उसको आहार दिखाकर आहार से विरक्ति कगना । (२६) हानि--क्षपक से क्रमशः प्राहार पानो का त्याग कराना। (३०) प्रत्याख्यान-जोवन पर्यंत के लिए सर्वथा माहार त्याग ।

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