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मरकण्डिका
न विद्यते व्रतं शीलं यस्य मिथ्यादृशः पुनः । न कथं दीर्घसंसारमात्मानं विदधाति सः ।। ६५ ।। प्ररोचित्वाज्जिनाख्यातं, एकमप्यक्षरं मृतः । निमज्जति भवाम्भोधौ, सर्वस्यारोचको न किं ॥ ६६ ॥ संख्येयाः संत्यसंख्येया, बालबालमृतौ भवाः । भव्य जन्तोरनंता वा, परस्य गणनातिगाः ॥ ६७ ॥ | अनंतेनापि कालेन प्रभज्य भवपंजरं । सिद्धयन्ति भविनो भव्या, नाभव्यास्तु कदाचनं ॥ ६८ ॥ * इति बालबालमरणाधिकारं समाप्तम् *
अर्थ – मिथ्यादृष्टि जीव अहिंसा आदि व्रतों से सम्पन्न होकर भी दीर्घ संसारी ही रहता है, संसार के कष्टों से छूट नहीं सकता है, तो फिर जिस मिथ्यादृष्टि के व्रत, शील आदि कुछ भी नहीं है उसके दीर्घ संसार परिभ्रमण कैसे नहीं होगा ? वह अवश्य ही अपने आत्मा को दीर्घ संसारी बना लेता है ।। ६५ ।।
अर्थ - जिनदेव प्रतिपादित आगम के एक अक्षर की भी अश्रद्धा करने वाला पुरुष मरकर भवसागर में डूब जाता है तो फिर संपूर्ण आगम की अश्रद्धा करने वाले पुरुष की बात ही क्या है ? अर्थात् वह तो अवश्य संसार समुद्र में भज्जन करेगा ही ||६६ ||
भावार्थ -- अनादि काल से आज तक चौरासी लाख योनियों में इस जीवका परिभ्रमण हो रहा है उसका कारण मिध्यात्व है । जब तक मिध्यात्व का अभाव नहीं होता तबतक संसार के महादुःखों से छुटकारा नहीं हो सकता भले ही व्रताचरण शील पालन यादि हो किन्तु वे सब गुण अंक रहित शून्य के समान हैं ।
अर्थ - - मिथ्यादृष्टि जीव यदि भव्य है तो उसके बालबालमरण होता है और उसके संख्यात या असंख्यात भव हैं अथवा किसी के अनन्तभव शेष हैं ||६७ ||
अर्थ - भव्य जीव अनंतकाल भव भ्रमण करके भी अन्त में भव पंजर का नाश कर मुक्त हो जाते हैं । किन्तु जो जीव अभव्य हैं वे कभी भी मुक्त नहीं होते, हमेशा चतुर्गतियों में भ्रमण करते हैं ।। ६८ ।।
|| बालबालमरण का वर्णन समाप्त हुआ ||