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मरणकण्डिका वर्ण्यमान यवा सम्यक, श्रद्दधाति न सूत्रतः । । तमर्थ स तदा जोथो, मिथ्यारष्टिनिगद्यते ॥३६॥ जेयं प्रत्येक बुद्धन, गणेशेन निवेदितं । श्रुतकेवलिना सूत्रमभिन्नदश पूर्विणा ॥३७॥ प्राप्तार्थश्चारुचारित्रः, शंक्यते न महामनाः । शंक्यते मंवधर्माऽसौ, कुर्वाणस्तत्त्वदेशनां ॥३८॥
तत्त्वार्थ का प्रतिपादन करते हैं और शिष्य जन यह गुरुपदिष्ट तत्त्व सत्य है ऐसा समझकर श्रद्धा करते हैं तो वे सम्यक्त्वी ही हैं।
अर्थ-पूर्वोक्त सम्यग्दृष्टि को कोई ज्ञानी गुरु सूत्र को दिखाकर उसके तत्त्व श्रद्धा में विपरीतता बतलाते हैं अर्थात् तुम्हारा अमुक तत्त्वबोध ठीक नहीं है, सूत्र में ऐसा कहा है इत्यादि, भली प्रकार समझाने पर यदि बह जीव उस सूत्रार्थ पर विश्वास नहीं करता और अपनी पूर्व मान्यता का आग्रह नहीं छोड़ता तो उस समय से वह मिथ्याष्टि बन जाता है ॥३६।।
अर्थ-सूत्र की परिभाषा करते हैं-प्रत्येक बुद्ध मुनि द्वारा प्रतिपादित, गणधर द्वारा तथा श्रुतकेवली और अभिनदर्शपूर्वी द्वारा प्रतिपादित वाक्य सूच'कहलाता है ।।३७।।
विशेषार्थ-तोर्थकर प्रभु के समवशरण में उनकी दिव्यध्वनि का विश्लेषण करने वाले सप्तद्धि संपन्न मुनिपुगब गणधर कहलाते हैं । आचारांग आदि समस्त थ त में पारंगत यतिराज श्र तकेवली नाम से कहे जाते हैं । जो अपने विशिष्ट क्षयोपशम से ज्ञान और वैराग्य सम्पन्न रहते हैं अन्य के उपदेशादि को अपेक्षा से रहित उन ऋषियों को प्रत्येक बुद्ध कहते हैं । तथा जो तपस्वी मुनिराज ग्यारह अंगों को पढ़कर क्रमश: पर्वज्ञान प्राप्त करने में संलग्न हैं, दसवाँ विद्यानुवाद नामके पूर्व को पड़ने पर उनके समक्ष विद्याओं की अधिष्ठात्री देवियाँ उपस्थित होती हैं, उस वक्त उन देवियों के प्रलोभन में जो नहीं आते हैं, उनके द्वारा जिनका ज्ञान वैराग्य भिन्न खण्डित नहीं होता है वे अभिन्न दर्शपूर्वी कहलाते हैं। इन चारों ही मुनि श्रेष्ठों द्वारा प्रतिपादित जो आगम है उन्हें "सूत्र" नामसे कहते हैं ।
अर्थ-जिसने अच्छी तरह आगम के अर्थ को आत्मसात् किया है, जो दृढ़ एवं सुन्दर चारित्र अर्थात् निर्दोष चारित्रयुक्त है ऐसे मुनिराजों के वचन प्रामाणिक होते हैं,