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बानमरणाधिकार धर्माधर्मनभः काल पुद्गलाञ्जिनदेशितान् । प्राज्ञया श्रद्दधानोऽपि, दर्शनाराधको मतः ॥३।। सिद्धाः संसारिणो जीवाः, प्रयाता: सिद्धिमनेकधा। आज्ञया जिननायाना, श्रद्ध याः शुद्ध दृष्टिना ॥४०॥
उनमें भव्य जीवों को शंका नहीं करनी चाहिये । किन्तु जो मन्दधर्मा है अर्थात जिसका चारित्र उज्ज्वल नहीं है वह तत्त्व देशना करता है तो उसमें विकल्प है. यदि उसका तत्त्वप्रतिपादन पूर्वोक्त सूत्रार्थ से मिलता है तो ग्राह्य है अन्यथा अग्राह्य है ।।३८।
भावार्थ—गणधर आदि चार प्रकार के मुनिराजों द्वारा कथित सूत्र प्रामाणिक होते ही हैं तथा जो संसार शरीर भोगों से पूर्णरीत्या विरक्त हैं, स्वार्थवश नहीं हैं लौकिक प्रयोजन से रहित हैं, वास्तविक आगम ज्ञान जिन्हें गुरुमुख से प्राप्त है। ऐसे आचार्य के वचन भी प्रामाणिक माने जाते हैं। जो साधु निर्दोष आचरण में शिथिल हैं उनके बचन यदि सूत्रार्थ से मिलते जुलते हैं तो मान्य हैं और सूत्रार्थ से नहीं मिलते तो अमान्य हैं।
अर्थ- अब यहाँ पर तत्त्वार्थ कौन है, द्रव्य कौन है यह बतलाते हैं-जिनेन्द्र द्वारा उपदिष्ट धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, कालद्रव्य, आकाशद्रव्य और पुद्गलद्रव्य ये पांच अजीव द्रव्य हैं, इनमें आज्ञामात्र से श्रद्धान करने वाला जीव दर्शनारावनाका आराधक माना जाता है ।।३।।
भावार्थ-जिन्हें छह द्रव्य सात तत्त्वों को प्रमाणनय आदि द्वारा तीन क्षयोपशम के कारण भली प्रकार बोध प्राप्त है वे इन तत्वों पर श्रद्धा करते है तो सम्यक्त्वी है हो किन्तु जो मन्द क्षयोपशमके कारण तर्कणा शक्ति से रहित हैं तो यह जिनेन्द्र द्वारा कहा हुया है, प्रभु अन्यथाबादी नहीं होते ऐसा विश्वास कर उनकी आज्ञा से तत्त्वरुचि करते हैं तो वे भी सम्यक्त्वी हैं दर्शनाराधना के आराधक हैं।
_अर्थ-जोव दो प्रकार के हैं संसारी और मुक्त । पंच परावर्तन युक्त जीव संसारी कहलाते हैं और जो (अनेक प्रकार की) सिद्धि को प्राप्त हैं उन्हें सिद्ध या मुक्त जीव कहते हैं । जिनदेव कथित इन जीवों पर उनको आज्ञा से शुब सम्यक्त्वी को श्रद्धान करना चाहिये ।।४०॥