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मरकण्डिका
आस्रवं संवरं बन्धं, निर्जरां मोक्षमंजसा । पुण्यं पापं च सदृष्टिः, श्रद्दधासि जिनाशया ॥ ४१ ॥
विशेषार्थ - ऊर्ध्वलोक आदि तीनों लोकों में संसरण परिभ्रमण करना संसार है, परिभ्रमण पाँच प्रकार का है, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव इनका स्वरूप सर्वार्थसिद्धि आदि ग्रन्थों से जानना । उक्त संसार जिनके पाया जाता है वे अष्ट कर्मों से संयुक्त दुःखी जीव संसारी हैं। जो अंजन सिद्धि, पादुका सिद्धि आदि सिद्धि को छोड़कर एक ही प्रकार की आत्म सिद्धि को प्राप्त हैं, कर्माष्टक से रहित ऐसे परमात्मा सिद्ध जीव कहलाते हैं ।
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अर्थ – सम्यक्त्व जीव जिनेन्द्र को आज्ञा से आस्रव संवर, बंध, निर्जरा, मोक्ष एवं पुण्य पाप इन सबका भली प्रकार से श्रद्धान करता है ||४१ ॥
भावार्थ - जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष पुण्य और पाप ये नव पदार्थ हैं। पुण्य पाप रहित जीवादि सात तत्त्व कहलाते हैं । जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म आकाश और काल ये छह द्रव्य हैं । काल को छोड़कर शेष पाँच अस्तिकाय कहलाते हैं ।
चेतना एवं ज्ञान दर्शन गुणवाला जीव तत्त्व है। जड़ तत्त्व को अजीव कहते हैं | योग द्वारा कर्म का आत्मा में प्रविष्ट होना आस्रव है । कर्म प्रदेश और आत्म प्रदेशों के संश्लेष संबंध को बन्ध कहते हैं । कर्मों का आना रुक जाना संवर है । संचित कर्म का अंशरूप से निकल जाना नष्ट होना निर्जरा है, संपूर्ण कर्मों का नष्ट होना- प्रात्मा से पृथक् होना मोक्ष है । प्रशस्त कर्मको पुण्य और अप्रशस्त कर्मको पाप कहते हैं। छह द्रव्यों में जीव का लक्षण पूर्वोक्त है। पुद्गल-जो पूरण गलन करे अथवा जो स्पर्श, रस, गंध, वर्ण युक्त पदार्थ है वह पुद्गल है ये जितने दृश्यमान पदार्थं हैं वे सब पुद्गल द्रव्य हैं इसके अणु और स्कन्ध के भेद से दो भेद हैं । स्कन्ध के अनेक अनेक भेद हैं । कर्म पुद्गल द्रव्य रूप ही है। जीव और पुद्गल के गति में सहायक द्रव्य 'धर्म' कहलाता है । जीव और पुद्गल को ठहरने में सहायक अधर्म द्रव्य है । जीवादि सर्व द्रव्यों को निवास में हेतु आकाश है । तथा सब द्रव्यों के परिवर्तन शीलता में सहायक कालद्रव्य है । बहुत प्रदेश वाले द्रव्यों को अस्तिकाय कहते हैं । इन द्रव्यादिका सविस्तार वर्णन पंचास्तिकाय, जीवकांड आदि में देखना चाहिये ।