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मरणकण्डिका
शंका कांक्षा चिकित्सान्य, दृष्टि शंसनसंस्तवाः । सदाचार रतीचाराः, सम्यक्त्वस्य निवेदिताः ॥४७॥ उपवृहः स्थितीकारो, वात्सलत्वं प्रभावना । चत्वारोऽमी गुणाः प्रोक्ताः सम्यग्दर्शन वद्ध काः ।।४।। जिनेशसिद्ध चैत्येष, धर्मदर्शन साधुषु ।। प्राचार्येऽध्यापक संघे, श्रुते श्रुततपोधिके ।।४६॥
अर्थ—सआचरणवाले आचार्यदेव ने सम्यक्त्व के पांच अतीचार बताये हैंशंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्यदृष्टि प्रशंसा और अन्यदृष्टि संस्तव । तत्त्व विषय में 'यह इसप्रकार है अथवा नहीं ऐसी आशंका को शंका नामका अतीचार कहते हैं ।
जो प्रादि भोगादि को नाहा काला कहलाती है। रत्नत्रयधारी मुनि आदि में ग्लानि का होना विचिकित्सा दोष है | तत्त्वदृष्टि विहीन व्यक्तियों को मनसे श्रेष्ठ मानना अन्यदृष्टिसंस्तव कहलाता है और वचन से अन्य मतावलम्बी व्यक्तियों की प्रशंसा करना अन्य दृष्टि प्रशंसा कहलाती है ।।४७।।
अर्थ-उपबृहण, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना ये चार गुण सम्यग्दर्शन को वृद्धिंगत करने वाले हैं ।।४८॥
भावार्थ-अपने आत्मीक गुणों को विस्तृत करना उपबहण है। इसका दूसरा नाम उपगहन भी है, अन्य धर्मात्मा व्यक्ति के दोष प्रगट नहीं करना उपगहन गुण है । अपने को और परको रत्नत्रय धर्म में स्थिर करना स्थितिकरण गुण है। निश्छल रूप से धार्मिक पुरुषों में स्नेह होना वात्सल्य है, तथा धर्मका प्रकाशन प्रभाबना कहलाती है । निःशंकितत्व, नि:कांक्षितत्व, निविचिकित्सा और अमूढदृष्टित्व ये चारगुण और भी हैं । जिनेन्द्र के वचन में शंका न होना निःशंकितत्व है। भोगाकांक्षा का अभाव नि:कांक्षितत्व गुण है । धर्म और धर्मात्मा में ग्लानि का अभाव निविचिकित्सा है, और परमत के चमत्कार आदि को देखकर जो मूढता होती है उसे नहीं होने देना अमढ़ दृष्टित्व है । ये सब मिलकर सम्यवत्व के आठ अंग या गुण कहलाते हैं ।
अर्थ-अब सम्यग्दर्शन विनय को कहते हैं-अरिहंत देव, अरिहंत की प्रतिमा, सिद्ध, सिद्धप्रतिमा, जन धर्म, रत्नत्रय, साधु, आचार्य, उपाध्याय, संघ, श्रुत, श्रु तज्ञान में जो अपने से अधिक है उनमें तथा तपश्चर्या में जो अपने से अधिक है, इन सबमें