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मरणकण्डिका सम्पूर्णीकरणं सिद्धि, व्यू हिमिसिरिष्यते । लाभपूजायशोथित्वं, व्यतिरेकेरणयोगिनः ॥४॥ परीषहोपसर्गादि, विनिपाते निराकुलं । पर्यन्ते प्रापणं तेषां, निन्यूंढि महितासताम् ॥५॥ प्राराधनाद्विधा प्रोक्ता, संक्षेपेण जिनागमे । दर्शनस्यादिमा तत्र, चारित्रस्यापरा पुनः ।।६।।
रत्नत्रय को या चतुर्विध आराधनाओं को पूर्ण करना सिद्धि कहलाती है । लाभ, प्रजा और यश की चाह के बिना सम्यक्त्व आदि के वहन करने की बुद्धि होना साधु को न्यूढि (निर्वहन या धारणा) है ।।४।।
परीषह और उपसर्ग आदि के आने पर भी रत्नत्रय को-आराधनाओं को निराकुलता से मरण पर्यन्त ले जाना सज्जनों को मान्य ऐसी निव्यू ढि (निस्तरण) कहलाती है ।।५।।
विशेषार्थ-सम्यक्त्व आदि को आराधना पांच तरह से होती है। द्योतन, मिश्रण, सिद्धि, व्यूढि और निव्यू ढि । अन्य ग्रन्थों में इन पांचों का नाम इसप्रकार पाया जाता है.---उद्योतन, उद्यवन, निर्वहन, साधन और निस्तरण यह केवल संज्ञा भेद है अर्थ समान ही कहा गया है । सम्यक्त्व का द्योतन--शंका कांक्षा आदि श्रद्धा संबंधी दोषों को दूर करना सम्यक्त्व का घोतन है । संशय आदि ज्ञान संबंधी दोष दूर करना सम्यग्ज्ञान का द्योतन कहलाता है । व्रतों को पच्चीस भावनायें बतलायी हैं। उन भावनाओं को नहीं भाने रूप दोषों को दूर करना चारित्र का द्योतन समझना चाहिये । असंयमरूप भाव तप का दोष है उसको हटाना तपका द्योतन है । सम्यक्त्व गुण का आत्मपरिणाम के साथ एकीकरण सम्यक्त्व का मिश्रण है। ज्ञान के साथ आत्मा को ऐक्य परिणति ज्ञान का मिश्रण है, चारित्र रूप ऐक्य परिणति चारित्र का मिश्रण और तपोभावना का आत्मा के साथ ऐक्य होना तप का मिश्रण है। सम्यक्त्व को पूर्णता सम्यक्त्व की सिद्धि रूप आराधना कहलाती है, ऐसे ही ज्ञान को पूर्णता चारित्र की पूर्णता एवं तप की पूर्णता क्रमशः ज्ञान की सिद्धि रूप आराधना, चारित्र की सिद्धि रूप आराधना और तप को सिद्धि रूप आराधना होती है । ख्याति आदि के चाह बिना श्रद्धा का धारण करना सम्यक्त्व की व्यूढि है । ऐसे ज्ञान को किसी लौकिक इच्छा के