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मरणकण्डिका निश्रेयस सुखादीनां, प्रासनीकरणक्षमं । आदिम जायते तत्र, प्रशस्तं मरणत्रयम् ॥३०॥
वर्तमान की आयु के समान आगे को पर्याय में आयु नहीं होना-विभिन्न प्रकार की होना । बालमरण-पहले गुणस्थान से लेकर चौथे गुणस्थान वाले जीवों के मरण को बालमरण कहते हैं । पंडितमरण-छठे से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान वालों का मरण । अबसन्न या ओसण्ण मरण-पार्श्वस्थ प्रादि भ्रष्ट मुनियों का मरण । बालपंडितमरणपंचम गुणस्थान वालों का मरण । सशल्यमरण-निदान आदि शल्य युक्त जीवों का मरण । बलाका मरण-विनय, गुप्ति, समिति, ध्यान, शुभ भाव आदि से रहित होकर मुनियों का जो मरण होता है, वह बलाका मरण है 1 बोसट्टमरण-इन्द्रिय आदि के आधीन होकर मरण होना । विप्पाणस मरण-भयंकर उपसर्ग आदि से अथवा अन्य किसी कारण से संयम में दोष नहीं लग जाय मैं ऐसी वेदना या कष्ट सह नहीं सकता,
और नहीं सहा जाय तो चारित्र में दूषण उपस्थित होगा ऐसी स्थिति में अर्हन्त के निकट आलोचना करके श्वास निरोध द्वारा कोई मनिराज मरण करे तो उसे विप्पाणस मरण कहते हैं। गिद्धपुट मरण-उपर्युक्त कारणों के होने पर जो मुनि शस्त्र द्वारा प्राण त्याग करते हैं उसे गिद्धपुट्ठ मरण कहते हैं । भक्त प्रत्याख्यानमरण-काय और कषाय को कृश करके विधिपूर्वक सन्यास धारण कर मरण होना । इंगिनीमरणजिसमें मुनि अपनी सेवा दूसरों से नहीं कराते स्वयं करते हुए आहार त्यागपूर्वक प्राण छोड़ देते हैं । प्रायोपगमनमरण-आहार त्यागकर वन में अकेले रहकर काष्ट के समान शरीर का त्यागकर ध्यान में लोन रहते हुए प्राण त्याग करना । केवलीमरण-चौदहवें गुणस्थान में अहंतदेव का निर्वाण होना मोक्ष होना केवलोमरण कहलाता है ।
इसप्रकार सत्तरह मरणों का यह संक्षिप्त लक्षण कहा है।
अर्थ-पंडित पंडित मरण, पंडित मरण, बालपंडित मरण, बाल मरण और "बाल बाले मरण इसप्रकार मरण के पांच भेदों के ये नाम हैं ।।२।।
अर्थ---उक्त पाँच प्रकार के मरणों में से आदि के तीन मरण प्रशस्त माने हैं, क्योंकि नि:श्रेयस ( मोक्ष ) सुख और अभ्युदय सुखों को सन्निकट करने में ये मरण समर्थ हेतु हैं ।।३०।।
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