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पीठिका
विधातव्यं सर्वदाराधनार्थिना ।
परिकर्म सुसाध्याराधना तेन भावितस्य प्रजायते ॥ २२ ॥
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राजन्यः सर्वदा योग्यां विदधानः परिक्रियाम् शक्तोजित श्रमीभूतः समरे जायते यथा ॥२३॥
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श्रामण्यं सर्वेदा कुर्वन् परिकर्म प्रजायते । अभ्यस्त करणः साधु, र्ध्यानशक्तो मृतौ तथा ॥२४॥
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शास्त्र में मरणकाल में आराधना का सार प्राप्त होता है ऐसा कहा है तो फिर चार प्रकार की आराधना में सदा काल प्रयत्न करने को क्या आवश्यकता है ? इस प्रकार प्रश्न उपस्थित होता है ||२१||
उपर्युक्त प्रश्न का उत्तर देते हैं-आराधना के इच्छुक मुनिजनों को सदा ही उन आराधनाओं के सहायभूत परिकर में प्रयत्नशील रहना चाहिये, क्योंकि जिसने पूर्व में भली प्रकार आराधना भावित को है उसके मरण काल में वह सहज सिद्ध हो जाती है ||२२||
विशेषार्थ -- कार्य सिद्धि में सहायक कारण जितने शक्तिशाली रहेंगे, कार्य उतना सहज साध्य होगा | यहाँ पर मुनियों का सल्लेखना रूप कार्य करना है, उसके समर्थ कारण सम्यक्त्व आदि श्राराधना में सतत उद्यमशील रहना है जिससे मरण उपस्थित होने पर वेदना आदि के कारण रत्नत्रय से धर्मच्युत न होवे | इसलिये साधुओं को उपदेश है कि वे आराधना में प्रमाद न करें ।
जिसप्रकार राजपुत्र सर्वदा शस्त्र अस्त्र का संचालन आदि रूप युद्ध का अभ्यास करता रहता है तभी वह रणांगण में विजय प्राप्त करने में समर्थ होता है । उसी प्रकार यहाँ समझना चाहिये ||२३||
जैसे शस्त्र का अभ्यस्त राजपुत्र युद्ध में विजयी होता है वैसे हमेशा आराधना सुप्ति, ध्यान, योग आदि परिकर्म को करता हुआ साधु मरण काल में समाधि करने में समर्थ होता है अर्थात् मरणकालीन पीड़ा में भी ध्यान आदि से च्युत नहीं होता है ।। २४ ।।