Book Title: Marankandika
Author(s): Amitgati Acharya, Jinmati Mata
Publisher: Nandlal Mangilal Jain Nagaland

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Page 14
________________ wale विषय परिचय यह मरणकांडका नामा ग्रन्थ आचार्य अमितगांत [ द्वितीय ] विरचित है । इसमें भक्त प्रत्याख्यान मरण प्रादि का सविस्तृत विवेचन होने से सार्थक गौरण नाम मरणकडिका है । तथा अपर नाम पाराधना विधि भी है, क्योंकि इसमें दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इन चार माराधनाओं का कथन है । यह ग्रंथ शिवकोटि आचार्य प्रणीत भगवतो पाराधना को प्रति छाया स्वरूप है। इसमें भक्त प्रत्याख्यान मरण का प्रमुखतया वर्णन है । इस मरण के कथन में चालीस अधिकार हैं। इन अधिकारों में से कोई अधिकार बिलकुल छोटा तो कोई बहुत बड़ा है, कोई मध्यमरूप है अतः इन अधिकारों के समुदाय बनाकर उनको बारह जगह विभक्त किया है । अनुशिष्ट अधिकार ( दूसरा ) सबसे अधिक विशाल है इसलिए इसको महाधिकार कहा है । प्रतिज्ञा पूर्वक मंगल श्लोक के अनन्तर चार आराधनाओं की सिद्धि के पांच हेतु बतलाए हैं-चोतन, मिश्रण, सिद्धि, म्यूढि और नियूं दि । सम्यग्दर्शन प्रादि दोषों को भली प्रकार से दूर करना द्योतन कहलाता है, प्रात्मा के साथ सम्यग्दर्शन प्रादि का एकीकरण मिश्रण है, सम्यग्दशनादि का परिपूर्ण करना सिद्धि है । ख्याति लाभ यश की चाह बिना इन सम्यक्त्व आदि का वहन म्यूढि कहलाती है । और परीषह आदि के प्राने पर भी निराकुलता से मरण पर्यन्त सम्यक्रवादि को ले जाना निव्यू द्वि कही जातो है, इन द्योतन आदि के ग्रन्या-तरों में उद्योतन, उद्यवन, निर्वहन, साधन और निस्तरण। ऐसे नाम हैं, अर्थ सर्वत्र यही है। सम्यक्त्व को आराधना अन्य तीन पाराधना का मुल आधार है, यदि सम्यक्त्व नहीं है और ज्ञानादि हैं तो वे समीचीन नहीं कहलाते न इनके धारक व्यक्ति आराधक ही कहलाते हैं । श्रद्धा-सम्यक्त्व रहित ज्ञान व्यर्थ है, भारभूत है, जैसे नेत्र का सार सर्प, कण्टक आदि का परिहार करके चलना है, किन्तु जो नेत्रवान पुरुष गतं में गिरता है तो उसका सनेव होना व्यर्थ है, वैसे सम्यक्त्व रहित ज्ञान को दशा है । जो सम्यक्त्व की पाराधना करता है उसकी नियम से ज्ञानाराधना होती है और जो चारित्र पाराधक पुरुष है वह तप आराधक भी है । चार प्राराधनाओं को सतत धाराधना करनो चाहिए, ऐसा नहीं विचारे कि अन्त समय में पाराधना कर लेंगे, क्योंकि जैसे राजपुत्र हमेशा शस्त्र संचालन का अभ्यास करता है तभी वह समरांगण में शत्रु पर विजय प्राप्त करता है वैसे जो साधु हमेशा आराधना में संलग्न रहता है यह मरण काल में ध्यानादि से व्युत नहीं होता मरण पर विजय प्राप्त कर लेता है । यदि कोई पुरुष जीवन में आराधना के अभ्यास विना हो अन्त में समाधिमरण पूर्वक प्राण छोड़ता है तो वह स्थाणुमूल निधानवत् है अर्थात् मार्ग से जाते हुए ठूठ से टकराना ठूठ उखड़ जाना और उसके नोचे गडा धन मिलना, यह सब असंख्य प्राणियों में से किसी एक को ही सुलभ है सबको नहीं वैसे बिना अभ्यास के समाधिमरण होना किसी एक को ही सम्भव है सबको यह सम्भव नहीं। सबका तो यही कर्तव्य है कि हमेशा दर्शन ज्ञानादि की आराधना करता रहे ।

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