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[ १६ ] भक्त प्रत्याख्यानमरण अर्ह आदि अधिकारमरण के सतरह भेद हैं। इनमें से इस मरणकंडिका में पांच मरणों का कथन है । बालमरण, बालबालमरण, बालपंडितमरण, पंडितमरण और पडितपंडितमरण । व्रत रहित सम्यग्दृष्टि के मरण को बालमरण कहते हैं । मिथ्यादष्टि के मरण को बालबालमरण कहते हैं । अणुनती पंचमगुणस्थानवों तथा प्रायिका, क्षुल्लक आदि का बालपंडित मरण होता है । छठे गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें गुणस्थानवर्तो मुनिजनों का पंडितमरण कहलाता है और चौदहवें गुणस्थानवर्ती ग्रहन्त देव का निर्वाण पण्डित पण्डिस मरण है।
सम्यक्त्व की आराधना पूर्णकरण करणे बाले जीवों का कथन करते हुए नीवादि सात तत्वों के श्रद्धान की प्रेरणा दो है एव ऐसा बताया है कि जिनागम के एक अक्षर का भी प्रथद्धान करे तो वह सम्यक्त्वाराधक नहीं है जो बाहर से संयत असंयत, मयतासंयत रूप है, किन्तु सम्यग्दर्शन रहित है तो वह आराधक नहीं है उसका मरण वालवाल मरणही कहलाता है । पण्डित मरण के तीन हैं-भक्त प्रत्याख्यान, इंगिनी और प्रायोपगमन । भक्त प्रत्याख्यान मरण के वर्णन में चालोस अधिकार हैं-अह, लिंग शिक्षा, विनय, समाधि, अनियत बिहार, परिणाम, उपधित्याग, चिति, भावना, सल्लेखना, दिशा, क्षमरण, अनुशिष्टि [प्रथम] परगण चर्या, मार्गरणा, सुस्थित. उपसर्पण. निरूपण, प्रतिलेख, पृच्छा, एक संग्रह, मालोचना, गुणदोष, शय्या, संस्तर, निर्यापक, प्रकाशन, हानि, प्रत्याख्यान, क्षामरण, क्षपणा, अनुशिष्टि [द्वितीय] सारणा, कवच, समता, ध्यान, लेश्या, फल, पाराधक त्याग। (१) अर्ह-भक्त प्रत्याख्यान मरण को धारण करने में जो मुनि योग्य हैं उसे अहं कहते हैं अर्थात्
रोग आदि के कारण जिसका मरण सन्निकट है, ऐसे साधु को समाधि के योग्य होने से 'मह' कहते हैं अर्थात् जिस अधिकार में इस प्रकार समाधि के योग्य कौन साधु है इसका वर्णन
होता है वह अहं नामका अधिकार है। (२) लिंग-दि. जैन साधु का वेष लिग किस प्रकार होता है इसका वर्णन इस प्रकरण में है
अर्यात् पोछो धारण, नग्नता, तैलादि के संस्कार से रहितता इत्यादि का कथन है । (३) शिक्षा थ तज्ञान का अभ्यास । (४) विनय-गुरुजनों का सम्मान, ज्ञान विनय प्रादि का कथन इस अधिकार में है। (५) समाधि--मनका समाधान होना अथवा मनकी एकाग्रता। ।६) अनियत विहार--साधुजन यत्र तत्र विहार करते हैं उसमे जो लाभ होता है उसका वर्णन । (७) परिणाम-अपने को जो कार्य करना है उसका विचार करना। (८) उपधित्याग--परिग्रह त्याग । (९) थिति--शुभ परिणामों को उत्तरोत्तर वृद्धि।