Book Title: Mandir
Author(s): Amitsagar
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 4
________________ VI कृति का कृत्य 'मंदिर' प्रवचन- पुस्तक की वैज्ञानिक मनोवैज्ञानिक, धार्मिक- आगमिक व्यावहारिक व्याख्यायें, आपके जीवन के उलझे हुए प्राथमिक धर्म पहलूओं पर प्रकाश डालती है, क्योंकि हमें धर्म को कहीं खोजना नहीं है। धर्म तो अनादि काल से स्वयं सिद्ध 'खोजा' हुआ है। लेकिन हमारे योगउपयोग से खोया हुआ है। अतः हमें धर्म को 'सर्च' नहीं करनी है 'रिसर्च' करनी है। यानि जो धर्म हमारे योग-उपयोग से विस्मृत हो चुका है, उसे ही हमें खोजना है। खोजने का पुरुषार्थ आप करें तो आपका स्वागत है अन्यथा मन्दिर प्रवचन कृति ने आपके खोजने की प्रक्रिया भी आपके सामने रख दी है। अब तो मात्र आपको अपने जीवन में प्रयोग करना है, अनुभूतियों से गुजरना है, क्योंकि आप जब मन्दिर आयें तो आपको बिल्कुल मन्दिर जैसी ही पवित्र अनुभूति हो । मन्दिर हमारे अन्दर अग्नरित हो जाये। जैसे- हम मिठाई खाते हैं तो मिठाई की मीठी अनुभूति के साथ ही हम झूमने लगते हैं । 'मन्दिर' प्रवचन कृति में प्रत्येक स्तर के व्यक्तियों की शंकाओं का समाधान करने का प्रयत्न किया गया है, अतः इस कृति को किसी पंथ-सम्प्रदाय से अनुबंधित नहीं करना । यदेि आपके मन में किसी पंथ-सम्प्रदाय - आम्नाय का आग्रह- दुराग्रह है तो कृपया आपके लिये यह कृति बिल्कुल अनावश्यक है, आप इसे न पढ़ें। यदि आप पंथ-आम्नाय का दुराग्रह एक तरफ रखकर पढ़ेंगे सुनेंगे तो आप अवश्य ही धर्म की जीवन्त अनुभूति कर सकेंगे। क्योंकि “धर्म एक जीवन्त अनुभूति है" और धर्मशास्त्र, अनुभूति के प्रतिविम्ब है। “वास्तविक धर्म वह है जो हमारी अनुभूति से होकर गुजरे।" हमें अपने होने का अहसास कराये। हमारे अपने अस्तित्व का बोध प्रदान करे। जब हमारी विशुद्ध अनुभूति, आगम-शास्त्रों से मिलती है तो समझ लेना कि हम धर्म को उपलब्ध हो गये। आगम, अनुभव की कसौटी है। अनुभव रूपी कसौटी पर अनुभूति रूपी स्वर्ण को कसकर परखा जाता है । अतः इस कृति में किसी पंथ सम्प्रदाय-आम्नाय का आग्रह है ही नहीं। फिर भी देश काल में प्रचलित मान्यताओं का विवेचन जरूरी है। लेकिन किसी मान्यता के साथ कोई आग्रह नहीं है। फिर भी हमारा कहना है कि धर्म का कभी सरलीकरण नहीं होता है, क्योंकि धर्म तो स्वयं में सरल है। धर्म एक ऐसा साँचा/ ढाँचा है जो हर युग के व्यक्ति के लिये बराबर है। फिर भी धर्म के साधनों का सरलीकरण करना यानि अपने और दूसरों के प्रमाद - आलस्य को बढ़ाना है । " अपनी सहुलियत के लिये धर्म में किया गया सुधार ही पंथ या सम्प्रदाय बन जाता है।" ,

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