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महापुराण
किं किउ काई वि भई अवराहड
अवक को षि किं विरसुम्मादव | भभ भणिय स पडिस्क्रेषि हउं कयँपंज लियरु ओह ईषि । बत्ता - अथिरेण असारं जीविएण किं अप्पल संमोहहि ॥
तु सिद्धहि वाणीवेणुहि नवरसखीरा ण दोहहि || २ ||
तं णिसुणेपिणु दर विहसंतें कसणसरोन सेतु कु कासवगोत सद पुष्यंतत्रणा पडिउत्त मिलि कालु वत्ररेरड जो जो दीसह सो सो दुजगु रावणं संझहि केरड उब्वे जि बित्थरइ णिरिव
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तिहारविंदु जोतें । विगन्भसंभू । केकुलतिलं सरसइणिलैएं । भो भो भरह णिसुपि णिक्खुत्तउ । निग्विणु णिग्गुणु दुष्णयगारच | निष्फलु णीरसु णं सुकर वणु । अस्थि पयट्टइ मणु ण महारउ । एक्कु विपल वि रबड भारिख ।
धत्ता - दोसे होउ तं त्र भणमि दोज अवरु मणि थक्क | जगु एउ चडाविडं चाउं जिह तिह गुणेण सह बंक ||४||
[ ३८. ३. ७
अपना मन क्यों नहीं लगाते ? क्या मुझसे कोई अपराध हो गया है, या कोई दूसरी उदासीनता उत्पन्न करनेवाली बात हो गयी है। कहो कहो, मैं कहा हुआ सबको स्वीकार करता हूँ । छो, यह हाथ जोड़कर तुम्हारी बात सुनने के लिए में बेठा हूँ।
पत्ता - अस्थिर और असार जीवनसे तुम अपनेको सम्मोहित क्यों करते हो, तुम सिद्ध वाणीरूपी धेनुसे नव ( जी / नया ) रस रूपी दूध क्यों नहीं दुहते ||३||
यह सुनकर थोड़ा हँसते हुए मित्रका मुखकमल देखते हुए, कुश शरीर और अरयन्त कुरूप देवो गर्भ से उत्पन्न कश्यपगोत्री केशवपुत्र, कविकुल तिलक और सरस्वती के पुत्र पुष्पदन्त कविने प्रत्युत्तर दिया - हे भरत, तुम निश्चितरूपने सुनो। कलिके मलसे मेला यह समय विपरीत निर्घुण निर्गुण और दुर्नयकारक है, जो-जो दीखता है, वह दुर्जन है, वह निष्फल नीरस है, मानो शुष्कवन हो । ( लोगोंका ) राग सन्ध्याके रागको तरह है, मेरा मन किसी अर्थ में प्रवृत्त नहीं होता, अत्यन्त उद्वेग बढ़ रहा है, एक भी पदकी रचना करना भारी जान पड़ रहा है।
पत्ता - दोष होगा इसलिए नहीं कहता, मेरे मन में दूसरा कुतूहल यह है कि यह विश्व गुणके साथ उसी प्रकार टेढ़ा है जिस तरह डोरी पर चढ़ा हुआ धनुष टेढ़ा होता है ॥ ४ ॥
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६. AP पच्छिम । ७. A कयपंजलि अरुहं अच्छमि । ८. PT मोहच्छमि । ९. AP तुहु ४. १ A P युद्धकुरु । २. P कयकुल ३ A omits सरसइपिलएं and reads उत्तमसत्ते in its place; P सरसय ४ Padds after this उत्तमसते जिणपयभसें । ५. A रएवच । ६. A गव