________________
-३८.३.६]
महाकषि पुष्पदन्त विरचित इय णिसुणेवि घिउद्धेष्ठ कहबह सयलकलायर णं छणससहरु। दिसत णिहालइ कि पि ण पेछा जा विमिहयमह र्णियधरि अच्छा। ताम पराइएण णयवंत मलियकरयलेण पणवंत ।। दसदिसिपसरियजसवरकंदै घरमइमत्तवंसणर्हयंदें । छणससिभंडलसंणिहवयणे णवकुवलयदलदीहरणयणं । घत्ता-खलसंकुलि कालि कुसीलमइ विणउ करेप्पिणु संवेरिय ॥
वचंति षि'"सुण्णसुसुण्णवाहि जेण सरासइ "उद्धरिय ॥२॥
१०
আলিগুলা
जयदुंदुहिसरगहिरणिणाएं। जिणवरसमयणिहेलपाखभे दुत्थियमितें वनगये। मैई उवयारावु णिव्वहणे विसविहुरसयभयेणिम्महणे। ओहामियपवरकरहे
तेण विगखें भन्यं भरहे। बोलाविउ का कन्वपिसल्लउ किं तुहं सबउ बाप गहिल्लउ ।
किं दीसहि विच्छायउ दुम्मणु गंधकरणि किं ण करहि णियमणु । यह सुनकर महाकवि जाग उठा मानो समस्त कलाओंको धारण करनेवाला पूर्णिमाका चन्द्र हो । वह विशाओंको देखता है, पशु साह कुछ भी नहीं पाता, शिगिरा बुद्धि का बद्ध अपने घरमें स्थित पा, तब जो न्यायशील है, जिसने दोनों करतल जोड़ रखे हैं, जो प्रणाम कर रहा है, जिसके यशरूपी वृक्षको जड़ें दसों दिशाओंमें फेंक रही हैं, जो श्रेष्ठ महामात्यके वंशरूपी आकाशका चन्द्रमा हैं, जिसका मुख पूर्णिमाके चन्द्रमाके समान है, जिनके नेत्र दोर्ष कुवलयदलके समान है, ऐसे आये हुए भरतने
पत्ता-खलोंसे व्याप्त समयमें विनय करके कुशीलमतिको रोका। जिसके द्वारा आकाशके सूने पथमें जाती हुई सरस्वतीका उद्धार किया गया ।।२।।
को अइयण (एपण या देवीयव्वा) देवोका पुत्र है, जिसका स्वर विजयको दुंदुभिके स्वरको तरह गम्भीर है, जो जिनवरके सिद्धांत रूपो भवनका आधार स्तम्भ है, जो दुःस्थित लोगोंका मित्र है, सम्भसे रहित है, मुसमें उपकार भावका निर्वाह करनेवाला है, जो विद्वानोंके संकटों
और सैकड़ों भयोंका नाश करनेवाला है, जिसने अपने तेजसे सूर्यके रथको निष्प्रभ कर दिया है, ऐसे उस गर्दरहित भव्य भरतने कहा-“हे काव्य-पण्डित कवि, क्या तुम बेचारे ग्रहगृहीत हो (तुम्हें भूत लग गया है ), तुम कान्तिहीन और उदासीन क्यों दिखाई देते हो, अन्य रचनामें
५. A विबुवाच । ६. AF विभियमह । ७. १ बसविसं । ८. APणहचदें। ९. P संवरि । १.. A
विसण सुसुण्ण । ११. P रिस। ३. १. A अश्यणदेविअंध.; P इयणुदेवियम्य । २. A वबगनिमें । ३. AP परचबयार । ४. A भार;
'हार।५. रुप ।