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महापुराण
१९७५ में मैंने भारतीय ज्ञानपीठको महापुराणके अनुवादका प्रस्ताव भेजा, जिसे स्वीकार कर लिया गया । यह अनुवाद उसीका प्रतिफल है । अनुवाद करनेमें ( खासकर अपभ्रंश काव्यके अनुवाद में ) सबसे बड़ी कठिनाई अपभ्रंशके शब्दों और रचना प्रक्रिया को पहचानने की है, अपभ्रंश कवियोंकी सांकेतिक कथन - पद्धति भी बहुत बड़ी बाधा है, मूल अर्थं तक पहुँचने में । मैंने अनुवादको मूलगामी, सरल और मुहावरेदार बनानेका भरसक प्रयास किया है, परन्तु फिर भी यह दावा मैं नहीं करता कि वह एकदम निर्दोष है । पाठकोंसे निवेदन है कि उनके ध्यानमें जो त्रुटियाँ आयें, वे उनकी सूचना मुझे देने का कष्ट करें,
उनका कष्ट निष्फल नहीं होगा, वह अनुवाद को शुद्ध बनाने में सहायक होगा ।
महापुराण के अनुवादकी कुल पाँच जिल्दें हैं । पहली सामने है । दूसरी जिल्द छप रही है । इस अवसरपर मैं एक प्रकारकी रिक्तताका अनुभव करता हूँ । भारतीय ज्ञानपीठके संस्थापक साहू दम्पती ( श्री शान्तिप्रसादजी और श्रीमती रमारानी ) अब हमारे बीच नहीं हैं । मैं उन्हें भारतीय ज्ञानपीठकी स्थापना के दिन से जानता हूँ, मिला कभी नहीं । श्रीमती रमाजी ज्ञानपीठकी प्रत्येक गतिविधि में अभिरुचि रखती थीं । मूर्तिदेवी ग्रन्थमालाके सम्पादक श्रद्धेय डॉ. हीरालाल जैन और डॉ. ए. एन. उपाध्येका भी निधन हो गया । कालके आगे किसीकी नहीं चलती । आवागमन संसारका शाश्वत धर्म है । परन्तु उन्होंने अपभ्रंश भाषा और साहित्य के क्षेत्रमें जो कार्य किया है वह जहाँ उनका सच्चा स्मारक है, वहीं हमारे लिए पथ-प्रदर्शक भी । इस अवसरपर उक्त विशिष्ट व्यक्तित्वोंका पुण्यस्मरण करना मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ । ग्रन्थमालाके वर्तमान सम्पादक श्रद्धेय पण्डित कैलाशचन्द्रजी और डॉ. ज्योतिप्रसादजीका भी मैं अनुगृहीत हैं कि उन्होंने प्रस्तुत अनुवादको स्वीकृति दी । आदरणीय भाई लक्ष्मीचन्द्रजी जैनके प्रति भी मैं हृदयसे अनुगृहीत हैं, उनकी रचनात्मक पहलके बिना, इसका इतने जल्दी छपना सम्भव नहीं था । इसके संयोजन और प्रकाशनमें क्रमशः सर्वश्री डॉ. गुलाबचन्द्रजी और सन्तशरण शर्माने जिस निष्ठाका परिचय दिया उसके लिए वे भी धन्यवाद और प्रशंसाके पात्र हैं ।
अन्त में श्रद्धेय डॉ. पी. एल. वैद्यके प्रति अपनी कृतज्ञता निवेदित करता हूँ कि उन्होंने महापुराण के अपने सम्पादित संस्करणका हिन्दी अनुवाद करनेकी अनुमति दी । भूमिकामें उन्होंने इसके लिए अपनी प्रसन्नता भी व्यक्त की है । मुझे भी इस बातकी प्रसन्नता और गर्व है कि महाकवि पुष्पदन्तके महापुराणका प्रथम अनुवाद देशकी सम्पर्क भाषा हिन्दीमें हुआ । इससे डॉ. वैद्यको यह आशा भी पूरी होगी कि विद्वान् पुष्पदन्त के साहित्यके विविध पक्षोंपर शोध कार्य करें ।
११४ उषानगर, इन्दौर
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- देवेन्द्रकुमार जैन
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