Book Title: Lilavai
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Bharatiya Vidya Bhavan

View full book text
Previous | Next

Page 155
________________ ४८ [ २५२ कोऊहल-विरइया णिववइ व वर सरि-जल-तुसार-पेरियड्डियाणुभावेण । पुरओ पइण्ण-कमलोवयार-पवणच्छडोहेणे ॥ २४२ ईय तस्स कणय-देवालयस्स दाहिण-दिसाय अणुलग्गं । गोला-णइवयण-विसेसय व रम्मं मढाययणं ॥२४३ तस्सिं च विविह-वर-कुसुम-रेणु-रंगावली-विरायते । मोहवि-लया-वियाण-यल-मणहरे मणि-सिला-बट्टे" ॥२४४ उवविढे दिटुं तावसी-यणं हर-हुयास-खवियस्से । अंतेउरं कुसुमाउहस्स विरहम्मि गहिय-वयं ॥२४५ तेणं च परिगयाओ तावस-वेसेण दो वि दिट्ठाओ। अविरिकासण-सुह-संठियाओ जक्खेसि-धूयाओ ॥२४६ एस त्ति महाणुमई एसा सा कुवलयावली एत्थ । इयें एव वियप्पंतो अल्लीणो ताण पासम्मि ॥ २४७ तो तं तहा मुणिंद सहसा दट्टण "ताहिँ दोहिं पि । आमुक्कासण-समुहं दो-तिण्णि पयाइँ अणुसरियं ॥ २४८ ५॥ २४१॥ २४२) णिववइ-[ निर्वपतीव वरसरिजलतुषारपरिवर्धितानुभावेन । पुरतः प्रकीर्णकमलोपचारपवनच्छटौघेन ] ॥ २४२ ॥ २४३) इय तस्स- [इति तस्य कनकदेवालयस्य दक्षिणदिशायाम् अनुलग्नम् । गोलानदीवदनविशेषकम् इव रम्यं मठायतनम् ] || २४३ ॥ २४४) तस्सि-[तस्मिन् च विविधवरकुसुमरेणुरङ्गावलीविराजमाने । माधवीलतावितानतलमनोहरे मणिशिलापट्टे ] ॥ २४४ ॥ २४५) उव५० विट्रं-[उपविष्टं दृष्टं तापसीगणं हरहुताशक्षपितस्य अन्तःपुरम् इव कुसुमायुधस्य विरहे गृहीतव्रतम् ] ॥२४५॥ २४६) तेणं-[तेन च परिगते तापसवेशेन द्वे अपि दृष्टे । अव्यतिरिक्तासनसुखसंस्थिते यक्षर्षिदुहितरौ] ॥ २४६ ॥ २४७) एस त्ति-[ एषा इति महानुमती एषा सा कुवलयावली अत्र । इति एव विकल्पयन् आलीनः तयोः पार्श्वे ॥२४७ ॥ २४८) तो ते-[ततः तं तथा मुनीन्द्रं सहसा दृष्ट्वा २१ ताभ्यां द्वाभ्याम् अपि । आमुक्तासनसंमुखं द्वित्राणि पदानि अनुसृतम् ॥ २४८ ॥ १P परियट्टि', J परियट्टि', B परियड्रिं. २ च्छटोघेन. ३ The Sk. commentary on this gāthā is not given by B. Verses Nos. 243-49, as well as their commentary, are not found in B; apparently it is gap in the ms. confirmed by the break in the serial number. Jणई. =तिलकमिव. P puts No. 3 on ली. = विराजमाने. 'P मोहवि, J माहवि. "वितानतल, Pषल for यल of J. "P बट्टे, Jघडे. १९ खंवियस्स, Jखवियस्य. १३ च, Jव. १४ = तापसीजनेन. "J चिय for चof P. अन्यतिरिक्तासनसुखसंस्थिताः. " = एत [इति एवं विकल्पं कुर्वन्. "P ताण, J ताहि. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500