Book Title: Kasaypahudam Part 15
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 8
________________ प्रस्तावना अभी तक कषायप्राभृत जयघवलाके १४ भाग मुद्रित होकर प्रकाशित हो चुके हैं । यह चारित्रमोहकी क्षपणाका कथन करनेवाले अधिकार में कृष्टिकरण और कृष्टिवेदनकाल का कथन करनेवाला पन्द्रहवां भाग है । इसके पूर्व अश्वकर्णकरण अधिकारतक इस अनुयोग द्वारकी प्ररूपणा चौदहवें भागमें सम्मिलित है। इस भाग में कृष्टिकरण और कृष्टिवेदनको प्ररूपणा की गई है । अतः क्षपणा सम्बन्धी प्रकृत विषयको ध्यान में रखकर क्रोधवेदक काल ३ भांग किये गये हैं । उनके नाम हैं-१ अश्वकर्णकरणकाल, २ कृष्टिकरणकाल और ३ कृष्टिवेदककाल | जब क्षपक श्रेणिपर आरूढ़ हुआ यह जीव पुरुषवेदके पुराने सत्कर्मके साथ छह नोकषायों को क्रोध संज्वलन में संक्रमित करके क्रोधसंज्वलनका वेदन करता है तब उक्त कालको तीन भागों में विभक्त करता है । उनमें से अश्वकर्णकरणका कथन चौदहवें भाग में कर आये हैं, यह हमने प्रारम्भमें ही सूचित किया है । शेष रहे दो भाग कृष्टिकरणकाल और कृष्टिवेदनकाल । उनमेंसे सर्वप्रथम कृष्टिकरणका कथन किया जाता है । १ कृष्टिकरण विधि आगे चूर्णि सूत्र में कृष्टिका अर्थ करते हुए लिखा है- 'किसं कम्मं कदं जम्हा तम्हा किट्टी' ।' यतः संज्वलन कर्म अनुभागकी अपेक्षा कृश किया गया है, अतः उसका नाम कुष्टि है । यहाँ कृष्टिकरणका काल अश्वकर्णकरणके कालसे विशेष हीन है । इसीप्रकार इसके कालसे कृष्टिवेदकका काल विशेषहीन होता है । उसका कथन कृष्टिकरणकी विधिको समाप्त करके करेंगे । जब यह जीव अश्वकर्णकरणको समाप्त करके कृष्टिकरणका प्रारम्भ करता है तब इसके स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध दोनों अन्य होते हैं । २ कृष्टियोंके उत्तरभेद और अल्पबहुत्व कृष्टियों के उत्तर भेदोंकी प्ररूपणा करते हुए बतलाया है कि क्रोधादि चारों संज्वलनोंमेंसे प्रत्येककी तीन-तीन कृष्टियाँ रची जाती हैं, जो संग्रह कृष्टियाँ कहलाती हैं, क्योंकि इनमेंसे प्रत्येककी अन्तर कृष्टियाँ अनन्त होती हैं । प्रकृत में लोभकी प्रथम संग्रह कृष्टि सबसे नीचे होती है । उसकी अवान्तर कृष्टियाँ अनन्त होती हैं । उससे ऊपर लोभकी दूसरी संग्रहकृष्टि होती है। उसकी भी अवान्तर कृष्टियाँ अनन्त होती हैं । इसीप्रकार शेष संग्रह कृष्टियाँ और उनकी अवान्तर कृष्टियां जाननी चाहिये । लोभकी प्रथम कृष्टि स्तोक होती है। दूसरी कृष्टि अनन्तगुणी होती है। इसीप्रकार उत्तरोत्तर अनन्तगुणे श्रेणी के क्रम से लोभकी प्रथम संग्रह कृष्टिकी अन्तिम कृष्टिके प्राप्त होने तक जानना चाहिए । जिस प्रकार लोभकी तीनों संग्रह कृष्टियोंके अल्पबहुत्वका कथन किया है, उसी प्रकार मायाकी तीनों संग्रह कृष्टियों के अल्पबहुत्वका कथन करना चाहिए । यहाँ मायाकी तीसरी संग्रहकृष्टिकी अन्तिम कृष्टिसे मानकी जघन्य कृष्टि अनन्तगुणी होती है । तथा इसीप्रकार मानकी तीनों संग्रह कृष्टियों और क्रोधकी तीनों संग्रह कृष्टियोंका अल्पबहुत्व घटित कर लेना चाहिए। आगे क्रोधकी तीसरी कृष्टिकी जो अन्तिम कृष्टि होती है उससे लोभके आदि स्पर्धकको आदि वर्गणा अनन्तगुणी होती है । इस प्रकार बारह संग्रह कृष्टियों और उनकी अवयव कृष्टियोंका तीव्र-मन्दता विषयक यह अल्पबहुत्व कहा । १. पृष्ठ ६२ ।

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