Book Title: Kasaypahudam Part 13 Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh View full book textPage 9
________________ संक्रम होने का नियम है, मिथ्यात्वको पूरा अपवर्तन कर सम्यक्त्वमें प्रक्षिप्त करता है यह कथन घटित नहीं होता ? इसका समाधान करते हुए बतलाया गया है कि मिथ्यात्वका पूरा संक्रम होने पर सम्यग्मिथ्यात्वको ही गाथासूत्र में मिथ्यात्व कह कर उक्त विधान किया है, अतः कोई दोष नहीं है। उक्त सूत्रगाथामें दूसरी बात यह बतलाई गई है कि ऐसे जीवके कमसे कम जघन्य पीतलेश्या अवश्य होती है। इसका आशय यह है कि जो जीव दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रारम्भ करता है उसके शुभ तीन लेश्याओंमें से कोई एक लेश्या ही होती है। अशुभ लेश्याओंके रहते हुए दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रस्थापक नहीं हो सकता। किन्तु यह नियम प्रस्थापकके लिए ही समझना चाहिए, निष्ठापकके लिए नहीं, क्योंकि जिसने पहले नरकायुका बन्ध किया है ऐसा जीव कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि होने पर यदि मर कर प्रथम नरकमें उत्पन्न होता है तो उसके मरणके समय अन्तर्मुहूर्त काल पहलेसे कपोतलेश्या नियमसे हो जाती है ऐसा नियम है। 'अंतोमुहुत्तमद्धं' यह तीसरी सूत्रगाथा है। इसमें पहला नियम तो यह किया गया है कि दर्शनमोहनीयकी छापणामें अन्तर्मुहूर्त काल लगता है, क्योंकि दर्शनमोहनीयकी क्षपणा नियमसे तीन करणपूर्वक ही होती है और तीनों करणोंमेंसे प्रत्येकका काल जब कि अन्तमुहूर्तप्रमाण है, अतः दर्शनमोहकी क्षपणामें अन्तर्मुहूर्त कालका लगना स्वाभाविक है। दूसरा नियम यह किया गया है कि जिसने दर्शनमोहनीयकी क्षपणा कर ली है ऐसा जीव देवगति और मनुष्यगतिसम्बन्धी आयु और नामकर्मका ही बन्ध करता है, अन्यका नहीं। स्पष्टीकरण इस प्रकार है कि यदि क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव मर कर नारकी या देव हुआ है तो मनुष्यगतिसम्बन्धी आयुकर्म और नामकर्मका बन्ध करेगा और यदि मरकर तिर्यश्च हुआ है या मनुष्य है तो देवगतिसम्बन्धी आयुकर्म और नामकर्मका बन्ध करेगा। यहाँ सूत्रगाथामें 'सिया' पद आया है सो उससे यह आशय ग्रहण करना चाहिए कि यदि क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव अन्तिम भवमें स्थित है अर्थात् चरमशरीरी है तो उसके आयुकर्मका बन्ध नहीं ही होगा। ऐसे जीवके देवगतिसम्बन्धी नामकर्मकी उत्तर प्रकृतियोंका बन्ध भी अपने बन्ध योग्य गुणस्थान तक ही होता है। 'खवणाए पट्ठवगो' यह चौथी सूत्रगाथा है। इसमें इस नियमका विधान किया गया है कि जिस मनुष्यभवमें दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका प्रारम्भ करता है उस भवमें यदि मुक्तिलाभ नहीं होता है तो नियमसे उस भवके साथ तीसरे या चौथे भवमें मुक्तिलाभ करता है । यदि ऐसा जीव मरकर नारकी और देव होता है तो तीसरे भवमें मुक्तिलाभका अधिकारी होता है और यदि उत्तम भोगभूमिका तिर्यञ्च या मनुष्य होता है तो चौथे भवमें मुक्तिलाभ करता है यह एकान्त नियम है। ___ 'संखेजा च मणुस्सेसु' यह पाँचवीं सूत्रगाथा है। इसमें चारों गतियोंमें नायिकसम्यग्दृष्टियोंकी संख्याका निर्देश किया गया है। खुलासा इसप्रकार है-प्रथम नरकके नारकी, उत्तम भोगभूमिके तिर्यश्च और वैमानिक देव असंख्यात हैं। साथ ही इनकी आयु भी संख्यातातीत वर्षप्रमाण है । यद्यपि प्रथम नरकमें संख्यात वर्षप्रमाण भी आयु पायी जाती है, परन्तु प्रकृतमें उसकी मुख्यता नहीं है, इसलिए इन तीनों गतियोंमें क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यात बतलाये गये हैं, क्योंकि वर्षपृथक्त्वके अन्तरसे नरक, तिर्यश्च और देवगतिमें सायिकसम्यग्दृष्टि जीव मरकर उत्पन्न होते हैं, अतः प्रत्येक गतिमें उनका प्रमाण पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होता है । यही कारण है कि उक्त सूत्र गाथामें उक्त तीन गतियोंमेंसे प्रत्येक गतिमें क्षायिकसम्यग्दष्टियोंका प्रमाण असंख्यात बतलाया गया है। अब रहीPage Navigation
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