Book Title: Kasaypahudam Part 13
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 8
________________ विषय - परिचय ११ दर्शन मोक्षपणा अनुयोगद्वार जयधवलाका यह तेरहवाँ भाग है । इसमें दर्शन मोहक्षपणा, संयमासंयमलब्धि, चारित्रfor और चारित्रमोह-उपशामनाका बहुभाग ये चार अर्थाधिकार संगृहित हैं । उनमें से दर्शनमोहक्षपणा यह एक अपेक्षा से सम्यक्त्व महाधिकार का दूसरा अर्थाधिकार और एक अपेक्षासे ग्यारहवाँ स्वतन्त्र अर्थाधिकार है । इसमें दर्शनमोह-क्षपणाका विस्तारसे सांगोपांग विवेचन किया गया है । इस अर्थाधिकार में कुल ५ सूत्रगाथाऐं आई हैं । उनमें से प्रथम सूत्र गाथा 'दंसणमोहक्खवणापट्टवगो' इत्यादि है । इसमें दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रस्थापक नियमसे कर्म-भूमिमें उत्पन्न हुआ मनुष्य होता है और उसका निष्ठापक चारों गतियों का जीव होता है यह निर्देश किया गया है । इसका विशेष स्पष्टीकरण करते हुए बतलाया है कि क्षयोपशम सम्यग्दृष्टि कर्मभूमिज मनुष्य दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रारम्भ करता है वह इस क्रियाको तीर्थंकर, केवली और श्रुतकेवलीके पादमूल में ही करता है ऐसा एकान्त नियम है, क्योंकि जिसने तीर्थंकर आदिके माहात्म्यको नहीं देखा है उसके दर्शन मोहकी क्षपणा के कारणभूत परिणाम ही उत्पन्न नहीं होते । यद्यपि सूत्रगाथामें इस तथ्यका निर्देश नहीं किया गया है, पर यह तथ्य पट्खण्डागम जीवस्थान चूलिकासे जाना जाता है। उसके प्रकृत विपयके प्रतिपादक सूत्र में 'जहि जिणा केवली तित्थयरा' ऐसा पाठ आया है। उससे ज्ञात होता है कि तीर्थंकर केवली, सामान्य केवली या श्रुतकेवलीके पादमूलमें ही कर्मभूमिज मनुष्य क्षायिक सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिका प्रारम्भ करता है । इस विषय में यह प्रश्न होता है कि तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध कर जो मनुष्य दूसरे और तीसरे नरकमें उत्पन्न होते हैं, वहाँसे आकर मनुष्य होने पर उन्हें क्षायिक सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति कैसे होती है, क्योंकि ऐसे जीवोंके प्रारम्भ में क्षयोपशम सम्यग्दर्शन ही पाया जाता है। और उन्हें तीर्थंकर केवली, सामान्य केवली तथा अन्य श्रुतकेवलीका सानिध्य मिलता नहीं, अतः उसी भवमें तीर्थंकर केवली होनेवाले ऐसे मनुष्योंके क्षायिक सम्यग्दर्शनंकी प्राप्ति कैसे होती है ? यह एक प्रश्न है । इसका समाधान यह किया है कि उक्त जीव स्वयं जिन अर्थात् श्रुतकेवली होने पर दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करनेमें समर्थ होते हैं । निष्ठापक चारों गतियों का जीव होता है इसका यह आशय है कि कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टि होने पर ऐसे जीवका मरण भी सम्भव है और ऐसे जीवने पहले जिस आयुका बन्ध किया हो, मर कर वह उस गतिमें उत्पन्न होता है । यदि नरकायुका बन्ध किया है तो प्रथम नरक में मध्यम आयुके साथ उत्पन्न होता है । यदि मनुष्यायु और तिर्यच्चायुका बन्ध किया है तो उत्तम भोगभूमि में पुरुषवेदी मनुष्य और तिर्यञ्च होता है और यदि देवायुका बन्ध किया है तो वैमानिक देव होता है ऐसा नियम है। 'मिच्छत्तवेदणीए कम्मे' यह दूसरी सूत्र गाथा है। इसमें पहली बात तो यह बतलाई गई है कि जब मिथ्यात्व कर्मका सम्यक्त्व प्रकृति में अपवर्तन कर लेता है तब उक्त जीव दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका प्रस्थापक कहलाता है । इस पर यह शंका की गई है कि मिथ्यात्वका सम्यग्मिथ्यात्व में संक्रम कर अनन्तर अन्तर्मुहूर्त कालद्वारा सम्यग्मिथ्यात्वका सम्यक्त्व प्रकृति में

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