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तीसरे परिशिष्ट में मूल गाथायें दी हुई हैं जिसमें कि मूलमात्र याद करने वालों को तथा मूलमात्र का पुनरावर्त्तन करने वालों को सुविधा हो। इसके अतिरिक्त ऐतिहासिक दृष्टि से या विषयदृष्टि से मूलमात्र देखने वालों के लिये भी यह परिशिष्ट उपयोगी होगा।
चौथे परिशिष्ट में दो कोष्टक हैं जिनमें क्रमशः श्वेताम्बरीय दिगम्बरीय उन कर्म विषयक ग्रन्थों का संक्षिप्त परिचय कराया गया है जो अब तक प्राप्त हैं। या न होने पर भी जिनका - परिचय मात्र मिला है। इस परिशिष्ट के द्वारा श्वेताम्बर तथा दिगम्बर के कर्म - साहित्य का परिमाण ज्ञात होने के उपरान्त इतिहास पर भी बहुत कुछ प्रकाश पड़ सकेगा ।
इस तरह इस प्रथम कर्मग्रन्थ के अनुवाद को विशेष उपादेय बनाने के लिये सामग्री, शक्ति और समय के अनुसार कोशिश की गई है। अगले कर्मग्रन्थों के अनुवादों में भी करीब-करीब परिशिष्ट आदि का यही क्रम रक्खा गया है।
इस पुस्तक के संकलन में जिनसे हमें थोड़ी या बहुत किसी भी प्रकार की मदद मिली है उनके हम कृतज्ञ हैं। इस पुस्तक के अन्त में जो अन्तिम परिशिष्ट दिया गया है उसके लिये हम, प्रवर्तक श्रीमान् कान्तिविजयजी के शिष्य श्रीचतुरविजयजी के पूर्णतया कृतज्ञ हैं; क्योंकि उनके द्वारा सम्पादित प्राचीन कर्मग्रन्थ की प्रस्तावना के आधार से वह परिशिष्ट दिया गया है तथा हम श्रीमान् महाराज जिनविजयजी और सम्पादक - 'जैन हितैषी' के भी हृदय से कृतज्ञ हैं, क्योंकि 'जैन हितैषी' के ई. सन् १९१६, अंक जुलाई-अगस्त में उक्त मुनि महाराज का 'जैन कर्मवाद और तद्विषयक साहित्य' शीर्षक लेख प्राप्त हुआ है जिसकी सम्पादकीय टिप्पणी से उक्त परिशिष्ट तैयार करने में सर्वथा मदद मिली है।
हम इस पुस्तक को पाठकों के सम्मुख रखते हुये अन्त में उनसे इतनी ही प्रार्थना करते हैं कि यदि वे उसमें रही हुई त्रुटियों को सुहृद्भाव से हमें सूचित करेंगे ताकि अगले प्रकाशन में उन त्रुटियों को सुधारा जा सके।
निवेदक- 'वीरपुत्र '
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