Book Title: Karmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Author(s): Devendrasuri, Sukhlal Sanghavi
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 8
________________ (७) है, जिसमें कर्मवाद और कर्मशास्त्र से सम्बन्ध रखने वाले अनेक आवश्यक अंशों पर विचार प्रकट किये हैं। साथ ही विषय-प्रवेश और ग्रन्थ-परिचय में भी अनेक आवश्यक बातों पर यथाशक्ति विचार किया है, जिन्हें पाठक स्वयं पढ़कर जान सकेंगे। अनन्तर ग्रन्थकार की जीवनी भी सप्रमाण लिख दी गई है। अनुवाद के बाद चार परिशिष्ट लगा दिये गये हैं। जिनमें से पहले परिशिष्ट में श्वेताम्बर, दिगम्बर दोनों सम्प्रदायों के कर्मविषयक समान तथा असमान सिद्धान्त तथा भिन्न-भिन्न व्याख्या वाले समान पारिभाषिक शब्द और समानार्थक भिन्न-भिन्न संज्ञाएँ संग्रह की हैं। इससे दिगम्बर सम्प्रदाय का कर्मविषयक गोम्मटसार और श्वेताम्बर सम्प्रदाय के कर्मग्रन्थ के बीच कितना शब्द और अर्थ-भेद हो गया है इसका दिग्दर्शन पाठकों को हो सकेगा। साधारण श्वेताम्बर और दिगम्बर भाइयों में साम्प्रदायिक हठ यहाँ तक देखा जाता है कि वे एक-दूसरे के प्रतिष्ठित और प्रामाणिक ग्रन्थ को भी मिथ्यात्व का साधन समझ बैठते हैं और इससे वे अनेक जानने योग्य बातों से वञ्चित रह जाते हैं। प्रथम परिशिष्ट के द्वारा इस हद के कम होने की और एक-दूसरे के ग्रन्थों को ध्यानपूर्वक पढ़ने की रुचि व सर्वसाधारण में पैदा होने की हमें बहुत कुछ आशा है। श्रीमान् विपिनचन्द्रपाल का यह कथन बिल्कुल ठीक है कि 'भिन्नभिन्न सम्प्रदाय वाले एक-दूसरे के प्रामाणिक ग्रन्थों के न देखने के कारण आपस में विरोध किया करते हैं।' इसलिये प्रथम परिशिष्ट देने का हमारा यही उद्देश्य है कि श्वेताम्बर, दिगम्बर दोनों एक-दूसरे के ग्रन्थों को कम से कम देखने की ओर झुकें—कूप-मण्डूकता का त्याग करें। दूसरे परिशिष्ट के रूप में कोश दिया है, जिसमें प्रथम कर्मग्रन्थ के सभी प्राकृत शब्द हिन्दी-अर्थ के साथ दाखिल किये हैं। जिन शब्दों की विशेष व्याख्या अनुवाद में आ गई है, उन शब्दों का सामान्य हिन्दी अर्थ लिख करके विशेष व्याख्या के पृष्ठ का नम्बर लगा दिया गया है। साथ ही प्राकृत-शब्द की संस्कृत छाया भी दी है जिससे संस्कृतज्ञों को बहुत सरलता हो सकती है। कोश देने का उद्देश्य यह है कि आजकल प्राकृत के सर्वव्यापी कोश की आवश्यकता समझी जा रही है और इसके लिये छोटे-बड़े प्रयत्न भी किये जा रहे हैं। हमारा विश्वास है कि ऐसे प्रत्येक ग्रन्थ के पीछे दिये हुये कोश द्वारा महान् कोश बनाने में बहुत कुछ मदद मिल सकेगी। महान् कोश बनाने वाले, प्रत्येक देखने योग्य ग्रन्थ पर उतनी बारीकी से ध्यान नहीं दे सकते, जितनी कि बारीकी से उस एक-एक ग्रन्थ की मूल मात्र या अनुवाद सहित प्रकाशित करने वाले ध्यान दे सकते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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