Book Title: Karmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Author(s): Devendrasuri, Sukhlal Sanghavi
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 6
________________ (५) वक्तव्य कर्मग्रन्थों का महत्त्व-यह सबको विदित ही है कि जैन-साहित्य में कर्मग्रन्थों का आदर कितना है। उनके महत्त्व के सम्बन्ध में इस जगह मात्र इतना ही कहना है कि जैन आगमों का यथार्थ व परिपूर्ण ज्ञान, कर्मतत्त्व को जाने बिना किसी तरह नहीं हो सकता और कर्मतत्त्व का स्पष्ट तथा क्रमपूर्वक ज्ञान जैसा कर्मग्रन्थों के द्वारा किया जा सकता है वैसा अन्य ग्रन्थों के द्वारा नहीं किया जा सकता। इसी कारण कर्म विषयक अनेक ग्रन्थों में से छः कर्मग्रन्थों का प्रभाव अधिक है। हिन्दी भाषा में अनुवाद की आवश्यकता-हिन्दी भाषा सारे हिन्दुस्तान की भाषा है। इसको समझने वाले सब जगह पाये जाते हैं। कच्छी, गुजराती, मारवाड़ी, मेवाड़ी, पंजाबी, बंगाली, मद्रासी तथा मालवा, मध्यप्रान्त और यू.पी., बिहार आदि के निवासी सभी, हिन्दी भाषा को बोल या समझ सकते हैं। कम से कम जैन समाज में तो ऐसे स्त्री या पुरुष शायद ही होंगे जो हिन्दी भाषा को समझ न सकें। इसलिये सबको समझने योग्य इस भाषा में, कर्मग्रन्थ जैसे सर्वप्रिय ग्रन्थों का अनुवाद बहुत आवश्यक समझा गया। इसके द्वारा भिन्न-भिन्न प्रान्त-निवासी, जिनकी मातृभाषा भिन्न-भिन्न है वे अपने विचारों की तथा भाषा की बहुत अंशों में एकता कर सकेंगे। इसके अतिरिक्त सर्वप्रिय हिन्दी भाषा के साहित्य को चारों ओर से पल्लवित करने की जो चेष्टा हो रही है उसमें योग देना भी आवश्यक समझा गया। दिगम्बर भाई अपने उच्च-उच्च ग्रन्थों का हिन्दी भाषा में अनुवाद कराकर उसके साहित्य की पुष्टि में योग दे रहे हैं और साथ ही अपने धार्मिक विचार, हिन्दी भाषा के द्वारा सब विद्वानों के सन्मुख रखने की पूर्ण कोशिश कर रहे हैं। श्वेताम्बर भाइयों ने अब तक इस ओर ध्यान नहीं दिया, इसलिये श्वेताम्बर सम्प्रदाय का अच्छे से अच्छा साहित्य, जो प्राकृत, संस्कृत या गुजराती भाषा में प्रकाशित हो गया है उससे सर्वसाधारण को फायदा नहीं पहुँच सका है। इसी कमी को दूर करने के लिये सबसे पहले कर्मग्रन्थों के हिन्दी अनुवाद की आवश्यकता समझी गई। क्योंकि श्वेताम्बर सम्प्रदाय में कर्मग्रन्थों के पठन-पाठन आदि का जितना प्रचार और आदर देखा जाता है उतना अन्य ग्रन्थों का नहीं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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