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प्रकाशकीय
वैदिक, जैन एवं बौद्ध तीनों परम्पराओं में कर्म सम्बन्धी विवेचनायें प्राप्त होती हैं, किन्तु कर्म विवेचना सम्बन्धी स्वतंत्र ग्रन्थ जैन परम्परा में ही उपलब्ध होते हैं। यदि कर्मशास्त्र को जैन धर्म-दर्शन का हृदय कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। क्योंकि जैन धर्म-दर्शन में कर्म को स्वयं अपना फलप्रदाता माना गया है। जैनदर्शन कर्म-फल निर्धारण हेतु वैदिक दर्शनों की भाँति ईश्वर जैसी किसी बाह्य सत्ता का सर्वथा निषेध करता है। जैन कर्मशास्त्र के अनुसार आत्मा ही परमात्मा है। आत्मा का अपने कर्मावृत परमात्मभाव को व्यक्त करके परमात्मरूप हो जाना ही ईश्वरत्व है। मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग जीव के कर्मावृत होने के कारण हैं तो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र कर्ममुक्ति के साधन हैं।
श्रीमद् देवेन्द्रसूरि विरचित तथा पं. सुखलाल संघवी द्वारा अनूदित प्रस्तुत ग्रन्थ कर्मतत्त्व की विस्तृत विवेचना करता है, लेकिन मुख्यतया इसमें कर्मप्रकृतियों का विपाक ही वर्णित है। यही कारण है कि इसका द्वितीय नाम कर्मविपाक रखा गया है।
ज्ञातव्य है कि सम्प्रदाय भेद का प्रभाव साहित्य पर भी पड़ा। यही कारण है कि कर्म विषयक साहित्य की रचना श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों सम्प्रदायों में पृथक्-पृथक् हुई। लेकिन दोनों सम्प्रदायों में विवेचित कर्म के मूल विषय में कोई मतभेद न होने के बावजूद कुछ पारिभाषिक शब्दों, उनकी व्याख्याओं और कहीं-कहीं तात्पर्य में थोड़ा-बहुत भेद है जिसे पं. सुखलालजी ने बखूबी विषयानुसार प्रस्तुत किया है। साथ ही श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा में मान्य ग्रन्थों की सूची भी प्रस्तुत की है जिससे विषय वस्तु स्पष्ट एवं सुगम्य हो गयी है।
प्रथम संस्करण के रूप में यह ग्रन्थ श्री आत्मानन्द जैन पुस्तक प्रचारक मण्डल, रोशन मोहल्ला, आगरा द्वारा ई. सन् १९३९ में प्रकाशित हुआ था । ग्रन्थ की महत्ता एवं उपादेयता को देखते हुए पार्श्वनाथ विद्यापीठ इसके सभी खण्डों का संशोधन कर पुनः प्रकाशन कर रहा है। यह श्रमसाध्य एवं व्ययसाध्य कार्य कदापि सम्भव नहीं होता यदि हमें श्री चैतन्य कोचर, नागपुर का सहयोग नहीं मिला होता। श्री चैतन्य कोचर साहब की जैन साहित्य के विकास, संवर्द्धन एवं
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