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पदवी दीक्षा प्रसंग, आधोई - कच्छ, वि.सं. २०४६, माघ शु.६
२४-३-२०००, शुक्रवार
चैत्र कृष्णा -४ : वणा
हंतूण सव्वमाणं सीसो होउण ताव सिक्खाहि । सीसस्स हुंति सीसा, न हुंति सीसा असीसस्स ॥ ४३ ॥
- चंदाविज्झय पयन्ना सर्वोत्कृष्ट दुर्लभ वस्तुएं हमें प्राप्त हुई हैं। उनका यदि सदुपयोग करें तो काम हो जाये । इस जन्म में नहीं तो दो-चार या सातआठ भवों में काम हो जाये ।
* इस 'चंदाविज्झय पयन्ना' ग्रन्थ में अभी ही साधना में सहायक बनने वाले सद्गुणों को प्राप्त करने की बात है ।
हमें बिना श्रम किये यह चारित्र प्राप्त हो गया है, यह बात सत्य है, परन्तु यह तो द्रव्यचारित्र है । भाव-चारित्र तो आत्मगुणों के द्वारा आता है, विनय आदि से आता है । श्वेत वस्त्र, सुन्दर दांडा, चमकता हुआ ओघा - ऐसे स्वच्छ-शुद्ध वेष से साधुत्व मिल जायेगा, ऐसा कदापि न मानें । अरे ! द्रव्य से उत्कृष्ट क्रिया होने पर भी भावचारित्र नहीं भी आये ऐसा भी हो सकता है ।
* मोक्ष की इच्छा है - ऐसा कहने पर भी उसकी साधना ही न करें तो क्या हमारी मोक्ष-प्राप्ति की इच्छा सच्ची मानी जायेगी ? (६२000000000000000000 कहे कलापूर्णसूरि - २)