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हमारा भ्रम होता है 'अधिक बोलेंगे तो अधिक लोग प्राप्त
करेंगे ।
आपके जीवन में होगा तो ही श्रोता के हृदय पर प्रभाव पड़ेगा । गुड़ खाने वाले संन्यासी ने उस लड़के को तब ही प्रतिज्ञा दी जब संन्यासीने स्वयं गुड़ खाना त्याग दिया । 'मैं ही गुड़ खाता होऊं तो दूसरे को उसका त्याग करने का कैसे कह सकता हूं?' तब से मैंने निश्चय किया कि कदापि दो व्याख्यान नहीं दूंगा । तब से सार्वजनिक व्याख्यान भी बंध कर दिये ।
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केवल प्रभावक नहीं, हमें आराधक बनना हैं । पू.पं. महाराज खास पूछते 'आपको क्या बनना हैं ? प्रभावक या आराधक ? वे हमें गीतार्थ एवं आराधक बनने का परामर्श देते । अन्त में आराधक ही विजयी होता है, प्रभु भक्त ही विजयी होता है, वे यह समझाते थे ।
दूसरें भले ही चाहे जो बनें अथवा चाहे जों करें, मैंने परन्तु तो आराधक बनने का ही लक्ष्य रखा । बोलो, मुझे कोई हानि हुई ?
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चिन्तामणि रत्न की अपेक्षा भी अधिक मूल्यवान हमारा निर्मल मन है । उसे कदापि मलिन मत बनने दो । आराधना का यही सार है ।
'चित्तरत्नमसंक्लिष्टमान्तरं धनमुच्यते । '
एक राजा के पांच सौ ही कुमार जब राधावेध साधने में निष्फल हुए तब मंत्री ने गुप्त रूप से पाले पुत्र को बाहर निकाल कर कहा, "निराश होने की आवश्यकता नहीं है । राजन् ! अब भी आशा की एक किरण है ।"
जब वह पुत्र राधावेध साधने के लिए खड़ा हुआ तब २२ शरारती राजकुमार तथा नंगी तलवारें लिए खडे दो सैनिक उसमें विघ्न डालने के लिए तत्पर हुए, परन्तु उसने राधावेध साध ही लिया ।
२७२ कळ
दो सैनिक राग-द्वेष और २२ व्यक्ति २२ परिषह । उनसे चलित हुए बिना हमें समाधि - मरण को साधना है ।
समाधि-मृत्यु की साधना राधावेध जितनी कठिन है, बल्कि
कहे कलापूर्णसूरि - २