Book Title: Kahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Author(s): Muktichandravijay, Munichandravijay
Publisher: Vanki Jain Tirth

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Page 563
________________ चाहिये उसका ध्यान आये । गुरु बने हों इससे कोई शिष्य मिट नहीं जाते । सच्चा शिष्य ही गुरु बनता है, ऐसा इस ग्रन्थ में उल्लेख है। यह ग्रन्थकार समझाते हैं कि ज्ञान नहीं सीखना है, विनय सीखना है । यह बात समझाने के लिए 'विनय-निग्रह' नामक चौथा अधिकार बताया । विनय एवं भक्ति में कोई अन्तर नहीं है । विनय एवं सम्यग्-दर्शन में कोई अन्तर नहीं है । इसीलिए सम्यग्-दर्शन का वर्णन अलग नहीं किया । विनय आने पर सम्यग्दर्शन आ ही गया समझो । अविनय आने पर मिथ्यात्व आया ही समझें । गोशालक, जमालि आदि में अविनय और मिथ्यात्व साथ ही आये थे । गुरु कुलवास छोड़ दिया तो विनय छोड़ दिया । सम्यग-दर्शन छोडा, मिथ्यात्व स्वीकार किया । चालू स्टीमर में उसे छोड़ देनेवाले के लिए समुद्र में डूबने के अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं है, उस प्रकार गुरुकुलवास को छोड़ देनेवाले के लिए संसार में डूबने के अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं रहा । विनय से ही सच्चा ज्ञान आता है, यह बताने के लिए फिर पांचवा ज्ञान अधिकार रखा । __ ज्ञान दीपक है। आपके हृदय में वह जलता होगा तो अन्य हजारों दीपकों को जला सकेगा । आप अन्य हजारों दीपकों को प्रज्वलित करोगे न ? अधिक नहीं तो कम से कम एक दीपक प्रज्वलित करें । आपकों जो मिला है वह मुक्त हस्त से दूसरों के दें । ज्ञान और विनय जितने विकसित होंगे, उतना चारित्र आयेगा । अतः चारित्र-गुण छठा अधिकार रखा । इन सबके फल स्वरूप अन्त में समाधि मिलती है, अतः सातवां अन्तिम अधिकार 'मरण-गुण' रखा । अन्त में ग्रन्थकार कहते हैं कि हम अनादिकाल से पुनः पुनः जन्म-मरण के चक्र में फिरते रहते हैं । अब ऐसा प्रयत्न करें कि वह चक्र बन्द हो जाये । आत्मा स्व में स्थिर हो जाये ।। कल से 'ललित विस्तरा' का स्वाध्याय प्रारम्भ करेंगे । मैं (कहे कलापूर्णसूरि - २00ooooooooooooooooom ५४३)

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