Book Title: Kahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Author(s): Muktichandravijay, Munichandravijay
Publisher: Vanki Jain Tirth

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Page 565
________________ * चिन्तन - कविवर्यश्री नारणभाई चत्रभुज (भीमासर, कच्छ-वागड़) * प्रस्तुति - 'मुक्तिमुनि' भागीदारी दो व्यापारियों की भागीदारी के रूप में पेढी सदा हानि में ही चलती थी । कौन जाने कितना ही समय निकल गया, परन्तु लाभ का नाम नहीं । पाई भी की कमाई नहीं, घड़ी की फुर्सत नहीं । एक का नाम चेतनजी, दूसरे का नाम पुद्गलजी ।। ये दोनों मिलकर व्यापार करते, परन्तु लाभ के नाम पर शून्य । __ इस मिथ्या दौड़ धूप से चेतनजी थक गये - 'सिरपच्ची का पार नहीं और फल कुछ भी नहीं । ऐसा कैसे चलेगा ? इससे तो अलग हो जायें तो अच्छा, परन्तु अलग होना कैसे ? चेतनजी अरिहंत की शरण में गये । अरिहंत देव ने कहा - ठीक है । आप हमारे साधु के पास जाओ । आपकी बहियां बताओ । वे करने जैसा कर देंगे । साधु भगवंत ने सब बहियां देखकर कहा, "अर्हन् ! चाहे जितनी हानि की हो, परन्तु मूलधन में से कुछ भी कम नहीं हुआ, यह एक बड़ी सिद्धि है । वे दोनों इतने धुल-मिल गये हैं कि उन्हें अलग करना मेरे लिए कठिन है । अब दोनों को उपाध्याय भगवन् के पास भेजा गया । उन्हों ने घिस-घिस कर लोहे को लोहा और सोने को सोना अलग दिखाया पर वे अलग कर सके नहीं । परन्तु आचार्यश्री ने तो दोनों को क्षपक श्रेणी की भट्टी में झोंक कर एकदम पिघला दिये और बिलकुल अलग कर दिये ।। उसके बाद अरिहंतने चेतनजी को कहा : अब जहां तक आयुष्य का बन्धन है तब तक यहां रहें । फिर आपको स्थायी रूप से सिद्धशिला पर रहना है। वहां आपके भागीदार की ओर से कोई भी अडचन नहीं डाली जायेगी । और हे पुद्गलजी ! आप अब चौद राजलोक में कहीं भी घूम सकते हैं । पूरा ब्रह्माण्ड आपका है । दोनों सदा के लिए अलग हो गये । कहे कलापूर्णसूरि - २0000000000000666 ५४५)

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