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* भगवान हमारे समक्ष ही हों फिर भी अपने हृदय में उपस्थित न हों तो क्या मतलब ? भगवान समक्ष न हों फिर भी आपके हृदय में उपस्थित हों तो 'सामने रहे हुए' ही कहलाते हैं। इसी लिए लोगस्स में 'अभिथुआ' लिखा । 'अभिथुआ' अर्थात् 'सामने स्थित भगवान की मैंने स्तुति की ।' भगवान मानस प्रत्यक्ष हो तब ही ऐसा बोल सकते हैं ।
भगवान का नाम केवल अक्षर नहीं हैं ।
भगवान की मूर्ति केवल पत्थर का आकार नहीं है, परन्तु साक्षात् भगवान हैं । भक्ति-मार्ग में आगे बढना हो तो यह सत्य समझना पड़ेगा । हम नित्य भगवान की स्तुति में एक श्लोक बोलते हैं -
__ "मन्त्रमूर्तिं समादाय, देवदेवः स्वयं जिनः । सर्वज्ञः सर्वगः शान्तः, सोऽयं साक्षात् व्यवस्थितः ॥"
* भगवान सर्वज्ञ है और 'सर्वगः' भी हैं । 'सर्वगः' अर्थात् सर्वव्यापी । सर्वं गच्छति इति सर्वगः । सर्वत्र फैल जाय वह 'सर्वगः' ।
एक ही शर्त है - मन स्वच्छ करो, पवित्र करो । मन स्वच्छ बना तो भगवान मन में आ गये ही समझें ।
मन विषय-कषाय से मलिन बना हुआ है। ज्यों ज्यों विषयकषाय घटते जायें, त्यों त्यों मन स्वच्छ बनता जाता है ।
विषय-कषायों के कारण से अनादि काल से नित्य कर्मबन्ध चालु ही है । इन कर्मों के कारण ही अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त ऐश्वर्य भीतर ही विद्यमान होने पर भी जीव जड़वत् बन गया है । अनन्त सुख पास में होने पर भी जीव बाहर भटक रहा है।
एक बार आत्मा ने अपना स्वरूप देख लिया, तो उस स्वरूप को प्राप्त करने के लिए वह तैयार होगी ही ।
साधु-जीवन यह स्वरूप प्राप्त करने के लिए ही हैं, यह न भूले ।
गुरु महाराज ने अपने विनय एवं वैराग्य पर विश्वास करके हमें साधु-जीवन दिया, यह मान कर कि भले इस समय समझ नहीं है, परन्तु समझ आयेगी तब स्वरूप-प्राप्ति के लिए यह जीव (४८६ooooooooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - २)