Book Title: Kahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Author(s): Muktichandravijay, Munichandravijay
Publisher: Vanki Jain Tirth

View full book text
Previous | Next

Page 517
________________ का उद्यान हरा-भरा नहीं रह सकता । आत्मा पर पड़े कर्म के समूह ज्यों ज्यों कम होते जायें त्यों त्यों आन्तरिक आनन्द की रूची बढ़ती है, भीतर की पूर्णता प्रकट करने की इच्छा होती है । पूर्णता का खजाना भीतर पड़ा ही है, प्रकट करें उतनी देरी है । "परम निधान प्रगट मुख आगले, जगत उल्लंघी हो जाय; ज्योति विना जुओ जगदीशनी, ___ अंधो अंध पुलाय ।" - पू. आनंदघनजी म.सा. इस काल में भी इस पूर्णता का खजाना कुछ अंशो में प्राप्त किया जा सकता है । जिन्हों ने कुछ अंशो में उसे प्राप्त किया है, उनके ये उद्गार हैं ।। * प्रभु अन्तर्यामी है, घट-घट में रमण करने वाले हैं । स्तवन में भी हम बोलते हैं - "अन्तर्यामी सण अलवेसर" यह स्तवन अनेक बार बोलने पर भी भगवान अन्तर्यामी किस प्रकार है, उस पर हम कदापि विचार नहीं करते । परम चेतनारूप प्रभु भीतर ही हैं । केवल नेत्र खोलकर देखने की आवश्यकता है। इसीलिए प्रतिदिन प्रभु के दर्शन करने हैं । प्रभु को देखदेख कर भीतर विद्यमान प्रभु को प्रकट करना है । "तुझ दरिसण मुझ वालहो, दरिसण शुद्ध पवित्र दरिसण शब्द नये करे, संग्रह एवंभूत ।" - पू. देवचन्द्रजी म.सा. * स्थापना के रूप में रहे प्रभु के दर्शन अपने भीतर के प्रभु को प्रकटाने का कारण हैं । इसे ही अजैन लोग आत्म-दर्शन कहते हैं। आत्मदर्शन होते ही विश्व का सम्यग्दर्शन होता है, विश्वदर्शन होता है। अन्तर्यामी अर्थात् अन्तर को जाननेवाले । 'या' धातु का अर्थ जानना भी होता है । प्रभु भीतर विद्यमान हैं तथा भीतर के ज्ञाता भी हैं । (कहे कलापूर्णसूरि - २00mmooooooooooooooon ४९७)

Loading...

Page Navigation
1 ... 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572