Book Title: Kahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Author(s): Muktichandravijay, Munichandravijay
Publisher: Vanki Jain Tirth

View full book text
Previous | Next

Page 538
________________ 'मनर्वा किमही न बाझे...' इस प्रकार आनन्दघनजी कहते हों तब मन साधना कितना कठिन है ? यह ध्यान में आयेगा । ऐसा दुर्जय मन केवल प्रभु के चरणो में जोड़ने से ही स्थिर बनता है । मन को स्थिर करने के लिए मोह का त्याग आवश्यक है। मोह के त्याग के लिए ज्ञान चाहिये । इसीलिए ही तो 'ज्ञानसार' में स्थिरता के पश्चात् मोह-त्याग और उसके बाद ज्ञानाष्टक रखा मन का भी वीर्य होता है । कई बार अशक्त शरीरवाले का भी मन अत्यन्त दृढ होता है क्योंकि उसका मनोवीर्य अत्यन्त ही जोरदार होता है । अनेक हृष्टपुष्ट मनुष्य भी मन के निर्बल होते हैं, क्योंकि उनका मनोवीर्य अत्यन्त ही निर्बल होता है। अडियल अश्व की अपेक्षा भी अत्यधिक उदंड इस मन को प्रभु में लगायें । ऐसा करोगे तो आत्मवीर्य पुष्ट होगा और फल स्वरूप आत्मतृप्ति मिलेगी । संसार के धन, सत्ता आदि से मिलने वाली तृप्ति मिथ्या है। अनेक व्यक्ति कहते हैं - हमारे लीला-लहर है; मकान, दुकान, सन्तान आदि सब बराबर है । यह तृप्ति स्वप्नवत् मिथ्या है, मान ली गई है । आत्म-वीर्य-वर्धक तृप्ति ही सच्ची है । उपवास का पारणा होते ही एक ताजगी की अनुभूति होती है । यह देह की तृप्ति है । उसी तरह से कभी कभी प्रभु-भक्ति आदि से आत्म-तृप्ति की अनुभूति होती है। अपना आत्मवीर्य इतना निर्बल है कि मन-वचन-काया के पास अपना कुछ भी चलता नहीं है। आत्मा विवश होकर शरारत पर उतरे तीनों योगों को देख रही है । घोड़े (अश्व) इधर-उधर भटक रहे हैं, घुड़सवार (अश्वारोही) विवश हैं । सच्ची करुणता यह है कि यह विवशता समझ में भी नहीं आती । विवशता समझ में आये तो उसे दूर करने का मन हो न? (५१८omooooooooooooomoms कहे कलापूर्णसूरि - २)

Loading...

Page Navigation
1 ... 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572