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करके सम्यक्त्व के समीप आता है । ऐसी स्थिति आने के पश्चात् ही धर्म प्रिय लगता है । यद्यपि यहां आने से ही कार्य हो जाता हो, ऐसा नहीं है । हम यहां अनन्त बार आ चुके हैं, परन्तु ग्रन्थि - भेद किये बिना, राग-द्वेष की तीव्र ग्रन्थि भेदे बिना, सम्यग्दर्शन प्राप्त किये बिना लौट गये हैं । धर्म हमें प्रिय नहीं लगा । अब भी ऐसे जीव देखते हैं न ? धर्म... धर्म... क्या करते हैं ? कोई आर्थिक-सामाजिक बात हो तो सुनें । हमें आनन्द आये । ऐसे जीवों को धर्म श्रवण करना ही अच्छा नहीं लगता । श्रध्धा या आचरण की तो बात ही कहां है ?
* मियां भले आज कमाया हुआ आज ही खर्च करके कल की चिन्ता न करे । 'आज ईद, फिर रोजा ।' कहावत के अनुसार चलेगा, परन्तु बुद्धिशाली वणिक् ऐसा नहीं करता । वह तो भविष्य का भी सोचेगा ।
इस समय प्राप्त धर्म सामग्री पूर्व की धर्माराधना का ही फल है, परन्तु इस समय यदि विशेष धर्माराधना न करें तो फिर क्या होगा ? यदि ऐसा विचार न आये तो हम मियां के समान हैं । भगवान का स्मरण करना अर्थात् अपने ही शुद्ध स्वरूप
* का स्मरण करना ।
भगवान के गुणों का ज्ञान-ध्यान-भान करें तो वे गुण आपके भीतर उत्पन्न होने लगेंगे, क्योंकि वे गुण हमारे भीतर विद्यमान ही हैं । अपने गुण ढंके हुए हैं और भगवान के गुण प्रकट हैं, केवल इतना ही अन्तर है ।
ऐसे गुण-समृद्धि - मय भगवान हैं यह मानकर प्रभु - प्रतिमा के दर्शन करने हैं । फिर आपको प्रभु - मूर्ति में समतारूपी अमृत की वृष्टि दृष्टिगोचर होगी ।
आनन्दघनजी की तरह आप भी बोल उठेंगे ।
" अमीय भरी मूरति रची रे,
उपमा न घटे कोय;
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शान्त सुधारस झीलती रे,
निरखत तृप्ति न होय... "
(घोर वर्षा के कारण पतरों का आवाज आने के कारण दस
कहे कलापूर्णसूरि २wwwwwwwww
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