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हो गया था । परम तपस्वी पू. पद्मविजयजी म. को भी अन्त में कैन्सर हुआ था ।
पू.पं. भद्रंकरविजयजी म. को भी रोग ने घेर लिया था ।
हमारे जैसों को होगा कि ऐसे परम साधकों को ऐसा रोग क्यों ? परन्तु हमारी दृष्टि मात्र ऊपर छल्ली है, गहराई में जा नहीं सकती ।
श्रेणिक महाराजा जैसे प्रभु के परम भक्त, फिर भी गये नरक में । कर्मसत्ता को अन्त में हिसाब चूकता करना है न ?
इससे यह बात भी फलित होती है कि निकाचित कर्म कदापि अपना फल दिये बिना जाते नहीं है। वे किसी का पक्षपात नहीं करते । इसीलिए कर्म भोगते समय नहीं, कर्म बांधते समय सचेत होना है।
"बंध समय चित्त चेतीए रे, उदये शो संताप ?"
- पं. वीरविजयजी म.सा. प्रश्न - भक्तामर में लिखा है - 'प्रभु ! आपकी स्तवना से पाप कर्म क्षीण हो जाते हैं तो श्रेणिक के कर्मों का क्षय क्यों नहीं हुआ ? श्रेणिक ने तो प्रभु की अनन्य भक्ति की थी ।
उत्तर - मैंने आपको पहले ही कहा है कि अनिकाचित कर्मों का ही क्षय होता है, निकाचित कर्मों का क्षय नहीं हो सकता । श्रेणिक के कर्म निकाचित थे ।
* असन्तोष इतना ज्वलन्त है कि चाहे जितनी विषयों की इच्छा पूरी की जाये, परन्तु वह पूरी नहीं होती, बढ़ती ही रहती है। उन पर नियन्त्रण करना ही पड़ेगा । विषय उपभोग करने से वश में नहीं आते ।
* प्रथम मित्रादृष्टि में अध्यात्म के बीज हैं । बीज बराबर होगा तो वृक्ष कहीं भी नहीं जायेगा । वह अपने आप उगेगा ।
धर्म एवं धर्मी की अनुमोदना बीज है । उसके बिना धर्म हृदय में बद्धमूल नहीं होगा ।
* दुःखमय संसार का व्युच्छेद शुद्ध धर्म से होता है । शुद्ध धर्म की प्राप्ति तथाभव्यता के परिपाक से होती है । तथाभव्यता का परिपाक शरणागति आदि तीन से होता है ।
(४७०60oooooooooooo 600 कहे कलापूर्णसूरि - २)