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भी यदि न्याय का अध्ययन नहीं कर पाया हो तो नैयायिक की दृष्टि में बालक ही गिना जाता है। (अधीत - व्याकरण - काव्यशास्त्रः अनधीतन्यायशास्त्रः बालः) उस प्रकार ज्ञानी की दृष्टि में हम बाल हैं । उनकी महत्ता समझने के लिए उनके जितनी ऊंचाई पर चेतना को लाना पड़ता है।
* जिसे भव का भय न हो, मोक्ष की इच्छा न हो, समर्पणभाव न हो, ऐसे व्यक्ति को दीक्षित करने की कदापि भूल न करें, अन्यथा पश्चाताप का पार नहीं रहेगा । आप स्वयं परेशान होओगे
और दूसरों को भी परेशान करोगे तथा शासन की भी अपभ्राजना होगी । दीक्षा देनी अथवा नहीं देनी यह आपके हाथ में है, परन्तु दीक्षा देने के पश्चात् आपके हाथ में कुछ नहीं रहता ।
* "मैं नहीं समझू ऐसा कोई श्लोक दुनिया में हैं ही नहीं ।" इस मिथ्याभिमान के कारण ही कट्टर जैन-विरोधी हरिभद्र भट्ट ने प्रतिज्ञा ली थी कि "मैं जिन श्लोक का अर्थ न समझता होऊं, उसका अर्थ जो समझायेगा उसका मैं शिष्य बनूंगा ।"
चाहे अभिमान से ली हुई थी यह प्रतिज्ञा, परन्तु उस प्रतिज्ञा को भी निष्ठापूर्वक पाली तो उनका जैन दर्शन में प्रवेश हुआ और हमें हरिभद्रसूरि मिल गये ।।
हरिभद्रसूरि सच्चे अर्थ में जिज्ञासु थे, सत्यार्थी थे । अतः दृष्टिराग छोड़कर मिथ्या धर्म में से सम्यग् धर्म में प्रविष्ट हुए ।
हरिभद्रसूरिजी ने परोपकार की भावना इतनी भावित की कि सम्पूर्ण जीवन उन्होंने परोपकार में लगा दिया । लोगों के उपकारार्थ ही उन्होंने १४४४ ग्रन्थों की रचना की ।
सूर्य किसके लिए उगता है ? बादल किसके लिए बरसता है ? नदी किसके लिए बहती है ? अपने लिए नहीं, परोपकार के लिए । केवल स्वयं को छोड़कर सभी कुछ न कुछ उपकार करते
___एक बात समझ लें स्वार्थवृत्ति ही सहजमल है । यही मिथ्यात्व है । यह न मिटे तब तक धर्म का प्रारम्भ नहीं होगा। . (४७६ 0000000000000wwwwww कहे कलापूर्णसूरि - २)