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मिनट तक वाचना बंद रही)
* पांचो ज्ञानों में 'श्रुतज्ञान' उत्तम गिना गया है, कैवल परोपकार की प्रधानता के कारण । श्रुतज्ञान का आदान-प्रदान हो सकता है, केवलज्ञान का नहीं । इसीलिए श्रुतज्ञान को सूर्य, चन्द्र, मेघ, दीपक आदि की उपमा दी गई है ।
दीपक बाह्य पदार्थ प्रकाशित करता है । श्रुतज्ञान हमारे अन्तर को ज्योतिर्मय करता है । सम्यग् ज्ञान का प्रकाश आते ही अविद्या नष्ट हो जाती है; अशुचि, अनित्य एवं पर पदार्थों में शुचिता, नित्यता तथा स्वपन की बुद्धि मिट जाती है।
"ज्ञान प्रकाशे रे मोह तिमिर हरे, जेहने सद्गुरु सूर; ते निज देखे रे सत्ता धर्म नी, चिदानंद भरपूर..."
- उपा. यशोविजयजी म.सा. * देव-गुरु-धर्म में कुदेव आदी की बुद्धि मिथ्यात्व है, उस प्रकार देह में आत्म-बुद्धि भी लोकोत्तर मिथ्यात्व है, यह बात हमें समझ में नहीं आई ।
जिस देह का संयोग हुआ है, उसका वियोग होगा ही । देह के संयोग से हुए समस्त सम्बन्धों का भी वियोग होगा ही । संयोग ही दुःख का मूल है, क्योंकि संयोग के तले में वियोग छिपा हुआ है । संयोग में सुख माना तो वियोग में दुःख होगा ही। इसीलिए कहा है कि -
"संजोगमूला जीवेण, पत्ता दुक्खपरंपरा ।"
अतः वियोग से नहीं, संयोग से डरो । __ ऐसी दृष्टि, भगवान श्रुतज्ञान देते हैं । याद रहे - गणधरों ने श्रुतज्ञान को भगवान कहा है । 'सुअस्स भगवओ' 'पुक्खरवरदी सूत्र' के अन्त में आने वाला यह पाठ श्रुतज्ञान में भगवत्ता को सूचित करता है।
* ध्याता, ध्येय एवं ध्यान की एकता के बिना सम्यग् दर्शन नहीं प्राप्त होता, परन्तु ध्यान से हम मीलों दूर हैं । ध्यान के बिना समकित कैसे मिलेगा ?
यथाप्रवृत्ति करण, अपूर्व करण आदि में रहा हुआ 'करण' शब्द समाधि का वाचक है । करण अर्थात् समाधि...! यथाप्रवृत्ति (४६६ 8600000000000 कहे कलापूर्णसूरि - २