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आप मानो या न मानो, मैं तो कहूंगा कि सब भगवान ने ही व्यवस्था कर दी है ।
मिट्टी भले ही उपादान कारण हो, परन्तु कुम्हार के बिना मिट्टी घड़ा नहीं बन सकती । उस प्रकार जीव भले ही उपादान कारण हो, परन्तु भगवान के बिना उसकी भगवत्ता प्रकट नहीं होती, ऐसा मेरा दृढ विश्वास है । साधना की यही मुख्य नींव है, ऐसी मेरी समझ है।
शास्त्रकारों की दृष्टि से मैंने अपनी इस समझ की जांच की है और मुझे वह सही प्रतीत हुई है। इसीलिए इतना बल देकर और अधिकार पूर्वक मैं यह बात कह सकता हूं ।
यशोविजयजी जैसे महान बुद्धिमान भी जब भक्ति को सार बताते हों, तब भक्ति ही केवल साधना का हार्द है, यह हमारा दिमाग स्वीकार नहीं करता हो तो हद हो गई ।।
* अठारह वर्ष पूर्व नागेश्वर के संघ के समय 'चंदाविज्झय पयन्ना' ग्रन्थ पर वाचना रखी गई थी । अब यह दूसरी बार वाचना चल रही है । पुनः पुनः यही ग्रन्थ क्यो ? यह न पूछे । पैंतालीस आगम एक बार पढ़ लिये तो क्या पूरा हो गया ? सात बार पढ़ें। तो ही रहस्य हाथ में आयेगा । हम सब नया-नया पढ़ने के शौकीन हैं, परन्तु पुरानों की ओर कदापि दृष्टि तक नहीं डालते । नयानया पढ़ने के बजाय पुराने की अधिकाधिक पुनरावृत्ति करेंगे, त्यों त्यों रहस्य हाथ में आते जायेंगे ।
* चंदाविज्झय पर गुजराती अनुवाद भी हो चुका है। यह पुस्तक प्रत्येक गृप को दिया है, फिर भी किसी को चाहिये तो मिलेगा ।
* भगवान की कैसी अद्भूत व्यवस्था है ? भगवान महावीर के पश्चात् ७७वी पाट पर मेरा नम्बर आया है, तो भी मैं भगवान की वाणी जान सकता हूं। इतना ही नहीं, दुप्पसहसूरि तक यह भगवान की वाणी चलेगी ।
भगवान का असीम उपकार है। * धर्म का एक अर्थ स्वभाव भी है।
साधु-जीवन में दसों यति धर्म अपना स्वभाव बनना चाहिये । कहे कलापूर्णसूरि - २00mmmmmsam00000000 ३४१)