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वह समता के आश्रय से ही शुभ ध्यान में चढ़ा । उपशम, विवेक एवं संवर के चिन्तन ने उसे शुभ भावधारा में लाया ।
इन तीन शब्दों में ऐसा क्या होगा, जिससे चिलातीपुत्र को समाधि लग गई ? अपनी साधना के लिए कोई उपयुक्त शब्द क्या हम नहीं ढूंढ सकते ?
* चार प्रकार के ध्यान (आर्त्त - रौद्र - धर्म - शुक्ल) के विस्तार में पूज्य हरिभद्रसूरिजी ने सम्पूर्ण ध्यान - शतक उडेल दिया है ।
हम जब शुभ - ध्यान में नहीं होते तब अशुभ- ध्यान में होते ही हैं, क्योंकि इन चार ध्यानों के अतिरिक्त अन्य कोई ध्यान हो ही नही सकता । खेत में अनाज नहीं उगे तो घास तो उगेगी ही । शुभ ध्यान नहीं हो वहां अशुभ- ध्यान होता ही है ।
शुभ - ध्यान के द्वारा समता-समाधि प्राप्त होती है । अभी से ही यदि समाधि की कला हस्तगत न करें तो मृत्यु के समय समाधि कैसे मिलेगी ?
हम तो समाधि के विषय में कुछ भी नहीं सोचते, परन्तु महापुरुष थोड़े ही भूलते हैं ? 'चंदाविज्झय' पर विशेषतः इस पर ही बल दिया गया है ।
साधारण कष्ट से ही हम समता से च्युत हो जाते हैं । कारण यह है कि स्वेच्छा से परिषह सहन नहीं करते । अत्यन्त ही अनुकूलता का मोह, परिषहों से दूर भागने की वृत्ति हमें मार्ग से दूर हटाती हैं, कर्म-निर्जरा का अवसर दूर ढकेलता है ।
मार्गाच्यवन-निर्जरार्थं परिषोढव्याः परिषहाः ।
तत्त्वार्थ सूत्र
जिन - कथित मार्ग में स्थिर रहना और कर्म की निर्जरा करनी हो तो परिषह सहन करने ही होंगे ।
कामदेव जैसे श्रावक गृहस्थ जीवन में भी परिषह सहन करते हों तो हम तो साधु है ।
* कषायों के कारण हम संताप में आ जाते हैं, चित्त की स्वस्थता, सन्तुलन खो देते हैं । दूसरे के कषाय के साथ अपने कषाय टकराते हैं और फिर नहीं होने वाला होता है । मैं कहता हूं कि आप अपने कषायों को इतने पंगु बना दो कि वे खड़े ही न हो www कहे कलापूर्णसूरि
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