________________
वैसे शिष्य में संक्रान्त हो जाती है । यही बात भगवान पर भी लागू पड़ती है ।
* देह के प्रति राग अधिक या भगवान के प्रति राग अधिक? चाहे जितना देह को कष्ट पड़े, परन्तु भगवान का राग छूटना नहीं चाहिये । (यद्यपि मेरी ऐसी साधना नहीं है, मैं तो केवल कहता हूं ।) * "राग भरे जन-मन रहो, पण तिहु काल वैराग;
चित्त तुमारा रे समुद्रनो, कोई न पामे रे ताग..." हे प्रभु ! लोग कहते हैं, आप वीतराग हैं, तो भी आप भक्तों के मन में रहते हैं। क्या यह राग नहीं कहलाता ? प्रभु ! आपका चित्त तो समुद्र है, इसका ताग कौन पा सकता है ?
__ "औदासीन्येऽपि सततं, विश्व विश्वोपकारिणे ।
नमो वैराग्य निघ्नाय, तायिने परमात्मने ॥" भगवान उदासीन हैं, वीतराग हैं, इसका अर्थ यह नहीं है कि भगवान पत्थर जैसे कठोर बन गये । भगवान फूल से भी कोमल हैं । वीतराग होने पर भी ये परम वात्सल्य के भंडार हैं । अनेकान्तवाद की दृष्टि से परस्पर विरोधी गुणधर्म भी समा सकते
भगवान वीतराग हैं, फिर भी रागी के हृदय में वास करते हैं । संसार का राग बुरा है । धर्म-राग, भक्ति-राग तो अत्यन्त ही श्रेष्ठ हैं ।
भगवान को कहते हैं न ? "जिणंदराय ! धरजो धर्म-स्नेह ।"
भगवती सूत्र में उल्लेख है - "हंता गोयमा ।" गौतम स्वामी को उत्तर देते हुए भगवान कहते है - 'हन्त' शब्द प्रीति वाचक भी है, टीकाकार ने यह कहा है। वीतराग में प्रीति कहां से आई ? यह प्रीति भगवान की करुणा एवं वत्सलना व्यक्त करती है ।
पलना दूर है, परन्तु डोरी माता के पास है। हमारे अन्तर की डोर भगवान के साथ जुड़ी हुई होनी चाहिये । रोता हुआ बच्चा माता की डोरी हिलाने मात्र से शान्त हो जाता है । भक्त भगवान के स्मरण मात्र से शान्त हो जाता है । (कहे कलापूर्णसूरि - २ ooooooooooooooo ४४९)