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हैं । विनयविजयजी ने लोकप्रकाश में लिखा है कि 'मेरे गुरु कीर्तिविजयजी का नाम मेरे लिए मंत्ररूप है ।
प्रश्न यह नहीं है कि आपके गुरु कैसे हैं ? प्रश्न यह है कि आपके हृदय में समर्पण-भाव कैसा है ?
आपकी विद्वता से या वक्तृत्व कला से आत्मशुद्धि नहीं होगी, मोक्ष नहीं मिलेगा । मोक्ष तो गुरु कृपा से मिलेगा ।
'मोक्षमूलं गुरोः कृपा ।
'मैं अच्छा कैसे दिखूं ?' ऐसी वृत्ति में से ही विभूषा वृत्ति का जन्म होता है । कामली ऐसे ओढ़ो या वैसे ओढ़ो, क्या फर्क पड़ता है ?
क्या फोटो खिंचवाना है ? साधु-साध्वी की फोटो खिंचवाने की इच्छा ही नहीं होती ।
आपके संयम से लोग आकर्षित होंगे, आपकी सुन्दर कामली या सुन्दर चश्मे से नहीं ।
आप इनकार करेंगे तो लोग स्वयं आकर कहेंगे मुझे काम दो । काम के लिए लोगों को पकड़ोंगे तो लोग दूर भागेंगे | सच्चे हृदय से निःस्पृहता स्वीकार करें, फिर चमत्कार देखना |
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वि. संवत् २०१६ में आधोई चातुर्मास में कोई श्रावक अच्छी वस्तु लेकर आता तो पू. कनकसूरिजी उस श्रावक को रवाना ही कर देते थे, क्योंकि इन बाल मुनियों (पू. कलाप्रभविजयजी एवं कल्पतरुविजयजी) की नजर पड़ जाये और वस्तु ले लें । यह उनका विचार था ।
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बड़ी कम्पनी में प्रत्येक को भिन्न-भिन्न कार्य सौंपे हुए होते हैं, उस प्रकार भगवान ने हमें (साधु-साध्वियों को) दस कार्य सोंपे हैं ।
पांच महाव्रत ग्रहण करने के पश्चात् यहां क्या करना है ? स्वाध्याय आदि तो है ही, परन्तु उसके अतिरिक्त जीवन में
क्या ?
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ये रही भगवान की दस आज्ञाऐं :
१.
क्रोध न करें । ( क्षान्ति)
२. नम्र रहें । ( मार्दव)
कहे कलापूर्णसूरि - २
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