________________
'मारे जे जग जीवने रे, ते लहे मरण अनंत ।' यह पंक्ति यही बात बताती है - आप सचमुच दूसरों को मारते नहीं है, स्वयं को ही मार रहे हैं । दूसरे को एक बार मार कर अपनी स्वयं की कम से कम दस बार मृत्यु निश्चित कर लेते हैं ।
- गृहस्थ जीवन में दान-परोपकार आदि प्रवृत्तियां थी । यहां आने के पश्चात् दान-परोपकार बंध हुए और जीवनिकाय के साथ भी हम तादात्म्य स्थापित नहीं कर सके तो अपनी दशा उभयभ्रष्ट बनेगी ।
'निर्दय हृदय छकाय में जे मुनि वेशे प्रवर्ते रे; गृही-यति लिंगथी बाहिरा, ते निर्धन गति वर्ते रे...'
- उपा. यशोविजयजी म.सा. * साधु-जीवन अर्थात् ऐसा जीवन जहां पर-पीडन अथवा पर-अहित का विचार ही नहीं आ सकता ।
* जितनी अशुभ भाव की तीव्रता से पाप हुआ हो, उतनी ही शुभ भाव की तीव्रता खड़ी करें तो ही वह पाप धोया जा
सकता है ।
हमारे संसार के दो ही कारण है - विषय एवं कषाय ।
विषय हमें जड़ के रागी बनाते हैं, कषाय जीव के द्वेषी बनाते हैं । जड का राग और जीव का द्वेष ही संसार का मूल है ।
पू.पं. भद्रंकरविजयजी म. यह बात घोट-घोट कर समझाते थे ।
भोजन नीरस उसका भजन सरस ।
भोजन सरस उसका भजन नीरस ।। निर्मलता की आवश्यकता हो तो भोजन में स्निग्धता छोड़े। अत्यन्त ही उत्तम प्रकार से प्रभु-भक्ति कर सकेंगे ।
* सम्यग्दर्शन निर्मल करने के लिए दो आवश्यक हैं - १. चतुर्विंशति स्तव - देव की भक्ति । २. वांदना - गुरु की भक्ति ।
* जिनालय के गभारे में हमें नहीं जाना चाहिये । साध्वीजी को तो बिल्कुल ही नहीं जाना चाहिये । इससे प्रभु की आशातना होती है। छोटी सी आशातना भी हमें कहीं भी भटका सकती है। (कहे कलापूर्णसूरि - २0000000000wooooooom ३२७)