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ही हिंसा आदि की उत्पत्ति होती है ।
क्रोध से हिंसा
मान से असत्य
माया से चोरी
लोभ से अब्रह्म एवं परिग्रह के पाप फूलते - फलते हैं । भगवान कहते हैं 'मैंने इस धर्म का विधिपूर्वक पालन
किया है और मैं इस स्थिति तक पहुंचा हूं । आप भी इस का पालन करके देखें ।
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धर्म दुर्गति से बचाता है ।
धर्म सद्गति में स्थापित करता है ।
अन्त में स्वभाव में स्थिर करता है ।
आत्मा को अब कह दो अब मैं धर्म का ऐसा पालन करूंगा कि हे आत्मन् ! तुझे कदापि दुर्गति में नहीं भेजूंगा, तुझे सद्गति तथा सिद्धिगति में भेज कर ही दम लूंगा ।
हाथ में आया हुआ यह धर्म खो न जाये उसके लिए सावधान
रहना ।
हाथ में आया हुआ चिन्तामणि रत्न यदि खो जाये तो ? कोई मूर्खता से उसे समुद्र में फेंक दे अथवा कौए उडाने के लिए फैक दे तो ? क्या चिन्तामणि रत्न दूसरी बार मिलेगा ? चिन्तामणि रत्न कदाचित् दूसरी बार मिल भी जाये, परन्तु खोया हुआ धर्म दूसरी बार मिले उसका कोई भरोसा नहीं है ।
* आप जिस धर्म में हैं, वहां से अधिकाधिक आगे बढ़ने की भावना आपके अन्तर में होनी ही चाहिये । तो ही आप जहां हैं वहां भी स्थिर रह सकोगे ।
सम्यक्त्वी हैं तो देशविरति की कामना करो । देशविरति हैं तो सर्वविरति की कामना करो । सर्वविरति हैं तो सिद्धिगति की कामना करो ।
गिरिराज की यात्रा पर जाते समय आप कहां तक चलते हैं ? मार्ग में कई स्थान आते हैं, परन्तु जब तक दादा का दरबार नहीं आता तब तक आप बीच में कहीं भी बैठते नहीं है; उस प्रकार जब तक सिद्धिगति प्राप्त न हो तब तक कहीं भी शान्ति
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कहे कलापूर्णसूरि -