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क्रिया मग्नता
२८-५-२०००, रविवार वैशाख कृष्णा द्वितीय-९ : पालीताणा
* जो पंच इंदियाई सन्नाणी विसयसंपलित्ताई ।
नाणंकुसेण गिण्हइ, सो मरणे होइ कयजोगो ॥ १३६ ॥ * जिस के अन्तर में जिन-वचनों के प्रति आदर हुआ, उसका यश चारों ओर फैलता ही है, अन्ततः मोक्ष भी प्राप्त होता ही है।
"जइ इच्छह परमपयं, अहवा कित्तिं सुवित्थडं भुवणे । ता तेलुक्कुद्धरणे, जिणवयणे आयरं कुणह ॥" जिन-वचनों का सम्मान करें तो मोक्ष है। जिन-वचनों का अपमान करें तो संसार है । सम्मान करना अर्थात् हृदय से स्वीकार करना - प्रभु ! आप कहते हैं वैसा ही है । वही सत्य है ।
"सेवं भंते सेवं भंते तमेव सच्चं ।" भगवती के प्रत्येक उद्देशा के अन्त में भगवान को गौतम स्वामी कहते है - 'प्रभु...! आप कहते है वैसा ही है, वही सत्य है ।'
श्रद्धा एवं बहुमानपूर्वक अनुष्ठान किये जायें तो ही कर्म-निर्जरा होती है। कर्म-निर्जरा होने से ही आनन्द बढ़ता है। आनन्द कितना कहे कलापूर्णसूरि - २Womwwwmommmmmmmmmms ३१५)