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सच्चा आनन्द परोपकार में है, अन्य को सहायक बनने में है। यह बात हम पूर्णतः भूल ही गये । हमारे भगवान परोपकार - व्यसनी और हम सर्वथा स्वार्थान्ध ! भगवान के पास कैसे पहुंचेंगे ? भगवान का इतना वर्णन सुनें, नित्य भगवान के दर्शन करें, फिर भी परोपकार की बूंद भी नहीं आये तो वह हमारा श्रवण कैसा ? अपने दर्शन कैसे ?
भगवान के दर्शन करते-करते भगवान जैसा बनना है, भगवान के गुण प्राप्त करने हैं ।
* हमने तो कर्म के विरुद्ध खुल्लमखुल्ला जंग छेड़ा है। उसके आक्रमण निरन्तर चालु ही रहेंगे, उल्टे बढ़ेंगे । उसके सामने हमें सीधा खड़ा रहना है । विषय-कषायों के आवेश के समय हमें मजबूत रहना है ।
प्रतिक्रमण आदि में मुझे तो इतना आनन्द आता है, एक लोगस्स में ही इतना आनन्द आता है कि उससे अलग ध्यान करने की इच्छा ही नहीं होती । छः आवश्यकों के अतिरिक्त दूसरा ध्यान कौन सा है ?
नित्य प्रतिक्रमण करना है यह समझ कर । इसकी उपेक्षा न करें। इसकी उपेक्षा अर्थात् अपनी आत्मा की उपेक्षा । नित्यनित्य अभ्यास करने का नाम ही तो भावना है।
ऐसे प्रतिक्रमण की उपेक्षा कैसे की जाये ?
जिसकी रचना स्वयं गणधरों ने की हो, जिस पर मलयगिरि जैसे महात्माओं ने हजारों श्लोक प्रमाण टीका लिखी हो, उसके पीछे कुछ तो रहस्य होगा न ? इसे छोड़कर अन्य कौन सी ध्यानप्रक्रिया हम सीखना चाहते हैं ? उनसे भी क्या हम बढ़कर हैं ? . एक लोगस्स की माहात्म्य तो देखो । पू.पं. भद्रंकरविजयजी म. तो इन्हें समाधि-सूत्र कहते थे । चौबीस भगवानों के महा मंगलकारी नाम इसमे हैं। भगवान के नाम की अपेक्षा दूसरा मंगल कौन सा है ? भगवान का नाम लेते-लेते, वीर... वीर... बोलतेबोलते तो गौतम स्वामी को केवलज्ञान हो गया था । १जिस में ऐसे समाधि-सूत्र विद्यमान हों, उस प्रतिक्रमण की उपेक्षा करके आप कौन से अन्य ध्यान की खोज में हैं, कहे कलापूर्णसूरि - २ Bassames assasses 0 २९५