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चिन्तामणि के चयनित ८०० श्लोक कण्ठस्थ किये हैं; व्याकरण, हेम लघु प्रक्रिया, धातुपाठ आदि कण्ठस्थ किये हैं । न्याय के अभ्यास हेतु भी दो वर्ष निकाले । प्रमाणनय तत्त्वालोकालंकर अवचूरि के साथ कण्ठस्थ किया । उसके बाद रत्नाकरावतारिका पढ़ी । षड्दर्शन समुच्चय, स्याद्वादमंजरी भी पढ़ी है, बाद में आगमों में प्रवेश किया ।
ग्रन्थ भले ही कण्ठस्थ किये, परन्तु स्थायी वे ही रहे, जिनके अर्थ समझे, भावित बनाये या जिनकी पुनः पुनः पुनरावृत्ति की । उनमें से अधिकतर श्लोक विस्मृत हो गये हैं । हां, देवचन्द्रजी आदि की तीन चौबीसी आज भी कण्ठस्थ हैं । वाचना में या व्याख्यान में जो मैं समझाता हूं, वे श्लोक कण्ठस्थ है । संक्षेप में इतना ही है कि जो हम दूसरो को देते हैं वे ही स्थायी रहते हैं ।
विनियोग से ही गुण स्थायी रहते हैं । समता के लिए मेरे कहने पर भी आपके भीतर समता न आये तो मुझे समझना चाहिये कि मुझ में समता की सिद्धि नहीं हुई । सिद्धि का यही नियम है कि हम दूसरों में उतार सकें हैं ।
* गृहस्थ लोगों को हम कहते हैं कि प्रसिद्धि की कामना नहीं होनी चाहिये । तो हम पर यह उपदेश नहीं लगता ? हमें ख्याति की कामना हो तो क्या समझें ?
* कूडे - कर्कट में पड़ी बिना दोरेवाली सुई नहीं मिलती, खो जाती है । उसी प्रकार से सूत्रविहीन अर्थ मस्तिष्क में से निकल जाते हैं, यह शास्त्रों का कथन है । ( गाथा ८३)
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* यह मैं नहीं बोलता, भगवान ही बोलते हैं । बोलने वाला मैं कौन ? जो भगवान मेरे द्वारा यह बुलवाते हैं, उन भगवान के ही चरणों में मैं यह सब समर्पित करता हूं ।
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१ कहे कलापूर्णसूरि