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रक्षा करनी चाहिये । यही सामायिक है । साधु को भी जीवराशि के साथ ऐसा अभेद भाव हो तो प्रभु को तो जीव-राशि के साथ कैसा अभेदभाव होगा ? किसी भी एक जीव को दुःख दें तो प्रभु को दुःख दिया कहा जायेगा । प्रजा के किसी भी सदस्य का अपमान राजा का अपमान कहलाता है। किसी भी जीव का अपमान भगवान का अपमान कहलाता है ।
'सव्वलोअभाविअप्पभाव ।' 'अजित शान्ति' में से यह भगवान का विशेषण समस्त जीवराशि के साथ प्रभु के अभेदभाव का द्योतक
प्रभु ने जो आज्ञा दी है उसका पालन न करें तो प्रभु का अनादर होता है ।
इस तीर्थ की स्थापना भगवान ने की है, अतः यह शासन प्रभु का कहलाता है । आप इस समय जिस कुटिया में रहते हैं वह कुटिया आपकी कहलाती है, आपके शिष्य आपके कहलाते हैं, तो भगवान ने जिन्हें श्रावक-श्राविका, साधु-साध्वी के रूप में स्थापित किया, वे क्या भगवान के नहीं कहलायेंगे ? अतः संघ का अनादर भगवान का ही अनादर हुआ ।
भव-परिभ्रमण का मूल कारण कोई हो तो प्रभु का अनादर ही है । इसीलिए 'पगामसज्झाय' में ३३ आशातनाओं का उल्लेख है। समस्त जीव-राशि की भी आशातना बताई है।
आपको क्या ऐसा लगता है कि गुरु की आशातना मेरे परमात्मा की आशातना है ? भगवान के प्रति बहुमान होने से भवनिर्वेद आता है । भगवान के प्रति बहुमान हुए बिना किसी भी जीव को कोई गुण प्राप्त नहीं होता । इसीलिए माने कि समस्त गुणों के दाता भगवान हैं । प्रश्न उठेगा कि गुण तो हमने उत्पन्न किये वे भगवान के द्वारा प्रदत्त कैसे कहलायेंगे ?
भोजन की क्रिया भले ही आपने की परन्तु भोजन में यदि भूख मिटने की शक्ति न हो तो? पत्थर खाने से क्या भूख मिटती है ?
उस प्रकार भगवान थे तो बहुमान हुआ न ? बहुमान भले ही अपनी आत्मा में हुआ परन्तु यदि भगवान नहीं होते तो क्या बहुमान होता ? भगवान नहीं होते तो क्या गुण आते ? (२३४00moommonomoooooo कहे कलापूर्णसूरि - २)