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समझें । प्रभु ने जिन्हें अपना माना, उन्हें हम पराया कैसे मान सकते हैं ? इसीलिए तो हमने दीक्षा ली है। दीक्षा लेने से तात्पर्य है छ: जीवनिकाय के प्रति प्रेम बढ़ाना ।
प्रभु के साथ अभेद-भाव तब ही उल्लसित होता है । हम प्रभु को अकेले ही समझ बैठे हैं, परन्तु उनका परिवार बहुत बड़ा है । प्रभु आते है तो परिवार के साथ ही आते हैं, अकेले कदापि नहीं आते ।
इस तरह जो परिवार सहित प्रभु को हृदय में प्रतिष्ठित करता हैं, उसकी समाधि-मृत्यु निश्चित है ।
* दुर्गति में से सद्गति में आये, इतनी धर्म-सामग्री मिली, इसमें आप पुरूषार्थ को कारण न मानें । यह सब प्रभु
के प्रभाव से ही प्राप्त हुआ है। नजर के सामने प्रभु का प्रभाव होते हुए भी इन्कार करना प्रत्यक्ष रूप से सूर्य का इन्कार करने के बराबर है । लाखों अंधे भी सूर्य का इन्कार करें तो भी आंखोवाला सूर्य को मानेगा ही । लाखों नास्तिक प्रभु का इन्कार करेंगे तो भी भक्त तो भगवान को मानेगा ही ।
* आज आप सब दादा की यात्रा करके आये हैं न ? आज क्या देखा ? अपार भीड़ देखी । मेरे दादा का कैसा प्रभाव है कि लोग दूर-दूर से खिंच कर आते हैं ।
परन्तु दादा तो ऐसे ही हैं - निरंजन, निराकार ! भक्तों की भीड़ से वे प्रसन्न नहीं होते या कोई न आये तो वे अप्रसन्न नहीं होते ।
* इस सिद्धगिरि पर जैसे भाव आते हैं, वैसा अन्यत्र कहीं भी नहीं आते, यह बात केवल साधक को समझ में आती है। इसके लिए साधक का हृदय चाहिये ।।
* मरुदेवी माता प्रभु के आलम्बन से ही मोक्ष में गये थे । प्रारम्भ का रुदन भक्ति में परिवर्तित हो गया । उसके बाद ही तो प्रभु की वीतरागता एवं विराटता दिखाई दी ।
* केवलज्ञान प्रभु में प्रकट है । अन्य जीवों में प्रच्छन्न है। केवलज्ञान अर्थात् समस्त जीवों में विद्यमान आनन्दमयी सत्ता । प्रभु उस सत्ता का सर्व में दर्शन करते रहते हैं, हम नहीं करते । (२४४ oss womamaroo कहे कलापूर्णसूरि - २)