Book Title: Jina Pooja Paddhati
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: K V Shastra Sangrah Samiti Jalor

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Page 6
________________ हता. मनुष्यो तो एमनी पुण्यसमृद्धिने जोईने ज अंजाई जता, पण जिनो कांई सदाकाल एक ज स्थाने रहेता नहि, जगतना जीवोना हितार्थे तेओ जुदा जुदा देश-प्रदेशोनुं पर्यटन करता रहेता. जे देशमाथी तेओ विहार करी जता, ते देशना तेमना परमोपासक बनेला गृहस्थो तेमना विरहमां तेमनुं दर्शन करवाने तरसता अने झूरता, पण ते कई एवी वस्तु न हती के कोईनी इच्छा मात्रथी मळी जाय. परिणामे तेओ षोतानी दर्शनेच्छाने पूर्ण करवा तेमना आकारो चीतरावीने के तेमनां प्रातेविंधो करावीने पोतपोताना घरोमां राखता अने तेमना दीदार निरखी-निरखीने नयनोने तृप्त करता. आम मनुष्य नी दर्शनेच्छामांथी मूर्तिनो प्रादुर्भाव थयो. वस्त्र पट्ट, फलकपट्टादिना रूपोमांथी धीरे धीरे धातु, रत्न, पाषाण सुधी पहोंचीने ए मूर्तिए एक सुन्दर शिल्पाकृतिनुं रूप धारण कयु. सारामां सारा किम्मती पाषाणो तथा सोना, चांदी, तात्र, पीतल आदि धातुओनी मूर्तिओ बनवा लागी. साथे साथे तीर्थकरोनी योगविभूतिना फलविपाकरूप प्रातिहार्योनुं चित्रण पण प्रतिमाओनी साथे थवा मांडयुं, ए बधुं छतांये त्यांसुधी दर्शन, नमन अने स्तवन सिवाय बीजी पूजामां कोई समजतुं न हतुं. भावनामांथी पूजानो विकास हजारो अने लाखो वर्ष पहेलांनी भारतभूमि नन्दनवन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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